आर.
के. लक्ष्मण में बचपन से चित्रांकन करने का जुनून था। घूमने-फिरने की उन्हें पूरी
आजादी थी। वे बचपन में आसमान में बादलों
को देखा करते थे, तो उनमें, उन्हें बड़ी-बड़ी आकृतियों ने मुझ उनसे कहा ‘तुम
दुनिया में जाओगे तो अपनी कलम और तूलिका से ऐसे चुभते हुये कार्टून बनाओगे, जिनमें लोगों को अपनी विकृतियों के दर्शन हो सकें,
जिन्हें देखकर लोग तिलमिला उठें।’ आर. के. लक्ष्मण के
कार्टूनों में दिखने वाले आम आदमी के प्रति लोग जिज्ञासु होंगे। जब देश 1947 में
विभाजन हुआ था तो उसी साल लक्ष्मण ने ‘फ्री प्रेस जर्नल’ में दाखिला पाया। इस देश में आम-आदमी के सामने बड़ी-बड़ी समस्याएं थीं।
गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी थी। लेकिन आम आदमी के पास कोई
आवाज नहीं थी। दरअसल उस वक्त लक्ष्मण को लगा आम-आदमी को कोई आवाज मिलनी चाहिए।
लक्ष्मण जो कार्टून बनाते थे उसमें लोगों की भीड़ होती थी। दरअसल अखबार में काम
करने वाले आदमी के लिए वक्त की पाबंदी का होना जरूरी है। लक्ष्मण कहते हैं, धीरे-धीरे मेरे कार्टूनों में आम आदमियों के आकृतियों की तादाद घटने
लगी-बीस से पंद्रह, पंद्रह से दस, दस
से पांच और फिर उनमें एक आदमी रह गया, जो सबका प्रतीक बन
गया। वह दिन था 24 दिसंबर 1951 को आम आदमी का जन्म हुआ। प्रस्तुत शोध आलेख में आर.
के. लक्ष्मण के कार्टूनों पर अध्ययन किया गया है और आम आदमी को समझने की कोशिश की
गयी है। इस आलेख में गुणात्मक शोध प्रविधि का उपयोग करते हुये अंतर्वस्तु विश्लेषण, साक्षात्कार और अवलोकन उपयोग किया
है।
लोगों के मन में ख्याल आता
है कि मैं एकांतप्रिय हूँ, सनकी हूँ। लेकिन ऐसा कुछ भी
नहीं है। हाँ, बेमतलब की बातों में वक्त जाया करने वाले
व्यक्ति मुझे कतई पसंद नहीं हैं। मैं अपने काम को साधना मानता हूँ, जिसके लिए बड़ी तीव्र एकाग्रता कि आवश्यकता होती है। मसलन इधर-उधर बेवजह
घूमना, लोगों से छेड़छाड़ करना, बाते
करना। दरअसल खाली समय में पूरी तरह से गैर जिम्मेदाराना हो जाना, सब कुछ मेरी आदत में नहीं है। लक्ष्मण
कहते हैं ‘मेरे कार्टूनों का आम आदमी वैसे तो करोड़ों का
प्रतिनिधि है, लेकिन उसके पास सिर्फ एक ही आवाज है-खामोशी की
आवाज। वह रोज़मर्रा कि जिंदगी और उसकी समस्याओं से बौखलाया हुआ है। वकौल लक्ष्मण, उनकी कंपनी के मैनेजर पीसी जैन ने एक बार उनसे से कहा कि 'यदि मैं आम आदमी की दृष्टिकोण से उसकी समझ को ध्यान में रखकर कार्टून
बनाऊं तो वे बहुत लोकप्रिय और पठनीय होंगे। तब मैंने आम आदमी की शुरुआत की।
लक्ष्मण बताते हैं कि ‘मेरा आम आदमी बेहद असदार है। वह आम जनता के हर दुख-दर्द से
वाकिफ है और देश की अस्सी फीसदी जनता की तरह सब कुछ चुपचाप देखतेरहने को मजबूर
है।’ आर. के. लक्ष्मण का जन्म 24 अक्टूबर 1921 को मैसूर में हुआ था। उनका पूरा नाम
रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर लक्ष्मण था। पांच वर्ष की उम्र से ही स्केचिंग करने
वाले लक्ष्मण 12-13 की उम्र में अखबारों में छपने लगे थे। आर. के. लक्ष्मण के
कार्टून में हमेशा टुकुर-टुकुर देखता एक आम आदमी होता था, जो केवल दृष्टा था और जो कभी नहीं बोला।
आर के लक्षमण वैसे ही उसके भीष्म पितामह थे जिस तरह से कि हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह हरि शंकर परसाई थे। उसी तरह आम आदमी और उसकी दशा लगातार 60 सालों तक वैसी ही बनी रही वह हतप्रभ सा सब कुछ होते देखता रहा क्योंकि वह अकेला रहा। आम आदमी को अकेले अकेले रखा गया है। उसके पास परम्परा की धोती है जिसकी सीमा इतनी है कि टखने उघड़े रहते हैं, पर उसके पास देह का ऊपरी भाग ढकने के लिए चौखाने वाली वंडी या कोट है जो बन्द गले का है। इस आम आदमी के पास गांधी जैसा धातु के गोल फ्रेम का चश्मा है क्योंकि वह साफ-साफ देखना चाहता है। इस आम आदमी के पास एक छाता होता था। छाता धूप और बरसात से रक्षा के लिए होता है। इस आम आदमी की रीढ हमेशा सीधी रही क्योंकि यह आम आदमी कभी झुका नहीं। कार्टून कला सामाजिक सरोकारों से सम्बन्ध रखती है। लक्ष्मण भी इसी आम आदमी की तरह रहे न तो उनकी रीढ कभी झुकी और न ही वे कभी झुके। जिस जे जे स्कूल आफ आर्ट ने यह कह कर उन्हें एडमीशन देने से मना कर दिया था कि आप में टेलेंट की कमी है उसी में दस साल बाद वे बतौर चीफ गैस्ट बुलाये गये थे। उन्होंने गांधी, नेहरूजी से लेकर चर्चिल, ख्रुश्चेव और मोदी तक हर सत्ताधीश के कार्टून बनाये। उन्हीं के शब्दों में कहें तो उन्हें अफसोस इस बात का रहा कि ज्योति बसु उनके लिए बहुत मनहूस रहे जिन्होंने उन्हें कभी कार्टून बनाने का अवसर नहीं दिया। आर. के. लक्ष्मण ‘कॉमन मैन’ की रचना और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए उनके प्रतिदिन लिखी जानी वाली कार्टून शृंखला "यू सैड इट" के लिए जाना जाता है। लक्ष्मण के आम आदमी का कार्टून पहली बार में टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में 1951 को छपा। उसी के कारण वे देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थानों में से एक के प्रमुख अंग्रेजी अखबार पर लगातार 68 सालों तक छाये रहे और पूरी दुनिया में रिकार्ड बनाया। उनके कार्टूनों को दूसरे अनेक अखबार और पत्रिकाएं पुर्नप्रकाशित करते रहे।
देश के हजारों लोग केवल लक्ष्मण की कार्टून के लिए ही टाइम्स ऑफ इंडिया खरीदते थे और लाखों लोग इस अखबार में सबसे पहले उनके कार्टून को देखने से ही अखबार की शुरुआत करते थे। वे निर्भय थे और कार्टून बनाने में कोई लिहाज नहीं करते थे, पर एक कुशल सर्जन की तरह केवल रोगग्रस्त भाग पर ही नश्तर चलाते थे। कह सकते हैं कि उनका कार्टून मंत्र की तरह होता था जिसके सहारे समझ के खजाने को खोला जा सकता था। मुझे चुनावों के दौरान बनाया गया उनका एक कार्टून याद आता है। जिसमें किसी गाँव में किसी पेड़ के सहारे चार छह ग्रामीण फटेहाल अवस्था में बैठे हैं और कोई सत्तारूढ नेता हाथ में माइक लिए अपने द्वारा किये कामों को बखान रहा है तो ग्रामीण आपस में कहते हैं कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला। आर. के. लक्ष्मण भारत के एक प्रमुख व्यंग्य-चित्रकार रहे हैं। आम आदमी की पीड़ा को अपनी कूची से गढ़कर, अपने चित्रों से इसे वे तकरीबन पिछले पचास सालों से लोगों को बताते रहे थे। असाधारण व्यक्तित्व के धनी आर. के. लक्ष्मण ने वक़्त की नब्ज को पहचान कर देश, समाज और स्थितियों की अक्कासी की। लक्ष्मण के कार्टूनों की दुनिया व्यापक है और इसमें समाज का चेहरा तो दिखता ही है, साथ ही भारतीय राजनीति में होने वाले बदलाव भी दिखाई देते हैं। आम आदमी सिर्फ जिंदगी की मुश्किलों से लड़ता है, उसे चुपचाप झेलता है, सुनता है, देखता है, पर बोलता नहीं, यही वजह है कि आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी ताउम्र खामोश रहा। आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी शुरू-शुरू में बंगाली, तमिल, पंजाबी या फिर किसी और प्रांत का हुआ करता था लेकिन काफ़ी कम समय में आम आदमी की पहचान बन गया। ये कार्टून टेढा चश्मा, मुड़ी-चुड़ी धोती, चारखाना कोट, सिर पर बचे चंद बाल। लक्ष्मण का आम आदमी पूरी दुनिया में ख़ास बन गया था।
सन् 1885 ई. में लक्ष्मण ऐसे पहले भारतीय कार्टूनिस्ट बन गए जिनके कार्टूनों की एकल प्रदर्शनी लंदन में लगाई गई। उसी यात्रा के दौरान वो दुनिया के जाने-माने कार्टूनिस्ट डेविड लो और इलिंगवॉर्थ से मिले। ये वो शख्स थे जिनके कार्टून को देखकर लक्ष्मण को कार्टूनिस्ट बनने की प्रेरणा मिली थी। आर. के. लक्ष्मण के कॉमन मैन वाले किरदार का डाक टिकट 1988 में जारी किया गया। सन् 1997 में वे एक प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए भोपाल आये जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मुख्य अतिथि होना था। जब उन्होंने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया तो उनका रूखा सा जबाब था कि मैं नाश्ता कर चुका हूं और फोन रख दिया। इसके बाद कला और पत्रकारिता जगत का विशेष सम्मान करने वाले मुख्यमंत्री ने स्वयं ही उनके होटल पहुँच कर उनसे भेंट की और अचानक ही हाईकमान का बुलावा आ जाने के कारण शाम के कार्यक्रम में न आ पाने के लिए क्षमा मांगी। भोपाल के लोग तब लक्ष्मण और उनके कार्टून की ताकत से अभिभूत हुये।
सूक्ष्म के सहारे विराट का परिचय कराने और उसमें अपनी दृष्टि को डाल देने की जो कला लक्ष्मण के पास थी वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। बहुत सारे दूसरे कार्टूनिस्टों के कार्टूनों में अगर कैप्शन न हों तो उनका व्यंग्य और कथन समझ में ही नहीं आता किंतु आर के लक्ष्मण के कार्टूनों में रेखाओं और बिन्दुओं के सहारे न केवल व्यक्तियों की पहचान की जा सकती है अपितु उनकी प्रवृत्तियों को भी देखा जा सकता है। इन्दिरा गांधी की पहचान उनकी लम्बी नाक से थी पर लक्ष्मण के कार्टूनों में वह और अधिक लम्बी हो जाती थी क्योंकि इन्दिरा गांधी अपनी नाक हमेशा ऊँची रखने के लिए मशहूर रही हैं। विसंगति की पहचान के लिए समाज हितैषी राजनीति की समझ और समाज विरोधी तत्वों की जैसी पहचान लक्ष्मण के कार्टूनों में मिलती है।
लक्ष्मण की काबिलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लंदन का अखबार ‘दि इवनिंग स्टैंडर्ड’ ने उन्हें एक समय डेविड लो की कुर्सी संभालने का ऑफर दिया था। लक्ष्मण के कार्टून फिल्मों में भी इस्तेमाल हुए। फ़िल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज’ और तमिल फ़िल्म ‘कामराज’ के लिए लक्ष्मण ने कार्टून बनाए। लक्ष्मण के बड़े भाई आर. के. नारायण की कृति ‘मालगुडी डेज’ को जब टेलीविज़न पर दिखाया गया तो उसके लिए भी लक्ष्मण ने स्केच तैयार किये। लक्ष्मण का आम आदमी उस वक़्त फिर ख़ास हो उठा जब डेक्कन एयरलाइंस की सस्ती विमान सेवा शुरू हुई। एयरलाइंस के संस्थापक कैप्टन गोपीनाथ अपने सस्ते विमान के लिए प्रतीक चिह्न की तलाश में थे और इसके लिए उन्हें लक्ष्मण के आम आदमी से बेहतर कुछ और नही मिल सकता था। लक्ष्मण का आम आदमी पूरी दुनिया में खास बन गया था. दुनिया के सबसे बड़े कार्टूनिस्ट डेविड लो से लक्ष्मण बहुत प्रभावित थे। अपने जीवन वृतांत 'द टनेल ऑफ टाइम' में आर के लक्ष्मण ने बताया कि वह बचपन में डेविड लो के नाम को 'काउ' पढ़ा करते थे। बचपन से ही चित्रों और कार्टून से लगाव रखने वाले आर के लक्ष्मण को स्कूली दिनों में पीपल के पत्ते पर बनाए एक चित्र को उनके शिक्षक ने खूब सराहा था। तभी से उनका कार्टून और चित्रों से लगाव बढ़ता चला गया।
लक्ष्मण कहते हैं कि कार्टूनिस्ट कि तुलना बीरबल या तेनालीराम जैसे दरबारी मसख़रों से नहीं की जा सकती। उसी तरह एक प्रजातांत्रिक ढांचे में उसकी भूमिका काफी बदली हुई है। उसका काम होता है अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करते हुए व्यंग्य करना। यानि सत्ता की तलवार के नीचे रहकर डरते हुए नहीं, बल्कि अपने जन्म प्रसिद्ध अधिकार की तरह व्यंग्य करना। उसे आलोचना का भर्त्सना व शिकायत का और प्रशासन व नेताओं के कामकाज में विसंगतियां दिखाने का। आगे वे कहते हैं कि ‘कार्टून बनाना शिकायत करने और असहमति जताने की कला है। इस कला के तहत मज़ाकिया तेवरों में चीजों यानि मुद्दों की एक स्वस्थ पड़ताल की जाती है। सच बताऊँ कार्टूनकार अभिशप्त जीव होते हैं। उन्हें चैन कभी नसीब नहीं होता। मैं किसी विचारवाद को स्वीकार नहीं करता। मैं कोई मिशनरी भी नहीं हूँ। दुनिया के चलन को तोड़कर उसे अपने मन माफिक बनाने की मेरी कोई इच्छा भी नहीं है। मेरी कोई प्रतिबद्धता भी नहीं है। मैं रचना करता हूँ। मैं कोई चिकित्सक नहीं हूँ कि दुनियाँ की बीमारियों का इलाज कर सकूँ।
निष्कर्ष:-
लंकनपल्ली, अशोक .(2004). कार्टून पत्रकारिता, नई दिल्ली, साक्षी प्रकाशन
बंसल, वीना .(2014). भारतीय कार्टून कला (व्यंग्य चित्रण), जयपुर, राजस्थान अकादमी
सारस्वत, प्रतिभा .( 24 अक्टूबर, 2015 अक्टूबर, 2015). आर. के. लक्ष्मण आम आदमी की आवाज़, https://www.gaonconnection.com/manoranjan/the-pain-of-a-common-man-created-through-the-cartoon
https://www.gaonconnection.com/gaon-chaupal/pola-is-thanksgiving-festival-for-bulls-and-oxen-by-farmers-in-maharashtra-47950?infinitescroll=1
सिंह, दिवेन्द्र .(24 Oct 2017).https://www.gaonconnection.com/manoranjan/the-pain-of-a-common-man-created-through-the-cartoon?infinitescroll=1
बत्रा, सचिन .(21 दिसंबर,2019). चुपचाप सब देखता कॉमन मैंन, नई दिल्ली, नवभारत टाइम्स
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आम आदमी और आर. के. लक्ष्मण |
आर के लक्षमण वैसे ही उसके भीष्म पितामह थे जिस तरह से कि हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह हरि शंकर परसाई थे। उसी तरह आम आदमी और उसकी दशा लगातार 60 सालों तक वैसी ही बनी रही वह हतप्रभ सा सब कुछ होते देखता रहा क्योंकि वह अकेला रहा। आम आदमी को अकेले अकेले रखा गया है। उसके पास परम्परा की धोती है जिसकी सीमा इतनी है कि टखने उघड़े रहते हैं, पर उसके पास देह का ऊपरी भाग ढकने के लिए चौखाने वाली वंडी या कोट है जो बन्द गले का है। इस आम आदमी के पास गांधी जैसा धातु के गोल फ्रेम का चश्मा है क्योंकि वह साफ-साफ देखना चाहता है। इस आम आदमी के पास एक छाता होता था। छाता धूप और बरसात से रक्षा के लिए होता है। इस आम आदमी की रीढ हमेशा सीधी रही क्योंकि यह आम आदमी कभी झुका नहीं। कार्टून कला सामाजिक सरोकारों से सम्बन्ध रखती है। लक्ष्मण भी इसी आम आदमी की तरह रहे न तो उनकी रीढ कभी झुकी और न ही वे कभी झुके। जिस जे जे स्कूल आफ आर्ट ने यह कह कर उन्हें एडमीशन देने से मना कर दिया था कि आप में टेलेंट की कमी है उसी में दस साल बाद वे बतौर चीफ गैस्ट बुलाये गये थे। उन्होंने गांधी, नेहरूजी से लेकर चर्चिल, ख्रुश्चेव और मोदी तक हर सत्ताधीश के कार्टून बनाये। उन्हीं के शब्दों में कहें तो उन्हें अफसोस इस बात का रहा कि ज्योति बसु उनके लिए बहुत मनहूस रहे जिन्होंने उन्हें कभी कार्टून बनाने का अवसर नहीं दिया। आर. के. लक्ष्मण ‘कॉमन मैन’ की रचना और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए उनके प्रतिदिन लिखी जानी वाली कार्टून शृंखला "यू सैड इट" के लिए जाना जाता है। लक्ष्मण के आम आदमी का कार्टून पहली बार में टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में 1951 को छपा। उसी के कारण वे देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थानों में से एक के प्रमुख अंग्रेजी अखबार पर लगातार 68 सालों तक छाये रहे और पूरी दुनिया में रिकार्ड बनाया। उनके कार्टूनों को दूसरे अनेक अखबार और पत्रिकाएं पुर्नप्रकाशित करते रहे।
देश के हजारों लोग केवल लक्ष्मण की कार्टून के लिए ही टाइम्स ऑफ इंडिया खरीदते थे और लाखों लोग इस अखबार में सबसे पहले उनके कार्टून को देखने से ही अखबार की शुरुआत करते थे। वे निर्भय थे और कार्टून बनाने में कोई लिहाज नहीं करते थे, पर एक कुशल सर्जन की तरह केवल रोगग्रस्त भाग पर ही नश्तर चलाते थे। कह सकते हैं कि उनका कार्टून मंत्र की तरह होता था जिसके सहारे समझ के खजाने को खोला जा सकता था। मुझे चुनावों के दौरान बनाया गया उनका एक कार्टून याद आता है। जिसमें किसी गाँव में किसी पेड़ के सहारे चार छह ग्रामीण फटेहाल अवस्था में बैठे हैं और कोई सत्तारूढ नेता हाथ में माइक लिए अपने द्वारा किये कामों को बखान रहा है तो ग्रामीण आपस में कहते हैं कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला। आर. के. लक्ष्मण भारत के एक प्रमुख व्यंग्य-चित्रकार रहे हैं। आम आदमी की पीड़ा को अपनी कूची से गढ़कर, अपने चित्रों से इसे वे तकरीबन पिछले पचास सालों से लोगों को बताते रहे थे। असाधारण व्यक्तित्व के धनी आर. के. लक्ष्मण ने वक़्त की नब्ज को पहचान कर देश, समाज और स्थितियों की अक्कासी की। लक्ष्मण के कार्टूनों की दुनिया व्यापक है और इसमें समाज का चेहरा तो दिखता ही है, साथ ही भारतीय राजनीति में होने वाले बदलाव भी दिखाई देते हैं। आम आदमी सिर्फ जिंदगी की मुश्किलों से लड़ता है, उसे चुपचाप झेलता है, सुनता है, देखता है, पर बोलता नहीं, यही वजह है कि आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी ताउम्र खामोश रहा। आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी शुरू-शुरू में बंगाली, तमिल, पंजाबी या फिर किसी और प्रांत का हुआ करता था लेकिन काफ़ी कम समय में आम आदमी की पहचान बन गया। ये कार्टून टेढा चश्मा, मुड़ी-चुड़ी धोती, चारखाना कोट, सिर पर बचे चंद बाल। लक्ष्मण का आम आदमी पूरी दुनिया में ख़ास बन गया था।
सन् 1885 ई. में लक्ष्मण ऐसे पहले भारतीय कार्टूनिस्ट बन गए जिनके कार्टूनों की एकल प्रदर्शनी लंदन में लगाई गई। उसी यात्रा के दौरान वो दुनिया के जाने-माने कार्टूनिस्ट डेविड लो और इलिंगवॉर्थ से मिले। ये वो शख्स थे जिनके कार्टून को देखकर लक्ष्मण को कार्टूनिस्ट बनने की प्रेरणा मिली थी। आर. के. लक्ष्मण के कॉमन मैन वाले किरदार का डाक टिकट 1988 में जारी किया गया। सन् 1997 में वे एक प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए भोपाल आये जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मुख्य अतिथि होना था। जब उन्होंने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया तो उनका रूखा सा जबाब था कि मैं नाश्ता कर चुका हूं और फोन रख दिया। इसके बाद कला और पत्रकारिता जगत का विशेष सम्मान करने वाले मुख्यमंत्री ने स्वयं ही उनके होटल पहुँच कर उनसे भेंट की और अचानक ही हाईकमान का बुलावा आ जाने के कारण शाम के कार्यक्रम में न आ पाने के लिए क्षमा मांगी। भोपाल के लोग तब लक्ष्मण और उनके कार्टून की ताकत से अभिभूत हुये।
सूक्ष्म के सहारे विराट का परिचय कराने और उसमें अपनी दृष्टि को डाल देने की जो कला लक्ष्मण के पास थी वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। बहुत सारे दूसरे कार्टूनिस्टों के कार्टूनों में अगर कैप्शन न हों तो उनका व्यंग्य और कथन समझ में ही नहीं आता किंतु आर के लक्ष्मण के कार्टूनों में रेखाओं और बिन्दुओं के सहारे न केवल व्यक्तियों की पहचान की जा सकती है अपितु उनकी प्रवृत्तियों को भी देखा जा सकता है। इन्दिरा गांधी की पहचान उनकी लम्बी नाक से थी पर लक्ष्मण के कार्टूनों में वह और अधिक लम्बी हो जाती थी क्योंकि इन्दिरा गांधी अपनी नाक हमेशा ऊँची रखने के लिए मशहूर रही हैं। विसंगति की पहचान के लिए समाज हितैषी राजनीति की समझ और समाज विरोधी तत्वों की जैसी पहचान लक्ष्मण के कार्टूनों में मिलती है।
लक्ष्मण की काबिलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लंदन का अखबार ‘दि इवनिंग स्टैंडर्ड’ ने उन्हें एक समय डेविड लो की कुर्सी संभालने का ऑफर दिया था। लक्ष्मण के कार्टून फिल्मों में भी इस्तेमाल हुए। फ़िल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज’ और तमिल फ़िल्म ‘कामराज’ के लिए लक्ष्मण ने कार्टून बनाए। लक्ष्मण के बड़े भाई आर. के. नारायण की कृति ‘मालगुडी डेज’ को जब टेलीविज़न पर दिखाया गया तो उसके लिए भी लक्ष्मण ने स्केच तैयार किये। लक्ष्मण का आम आदमी उस वक़्त फिर ख़ास हो उठा जब डेक्कन एयरलाइंस की सस्ती विमान सेवा शुरू हुई। एयरलाइंस के संस्थापक कैप्टन गोपीनाथ अपने सस्ते विमान के लिए प्रतीक चिह्न की तलाश में थे और इसके लिए उन्हें लक्ष्मण के आम आदमी से बेहतर कुछ और नही मिल सकता था। लक्ष्मण का आम आदमी पूरी दुनिया में खास बन गया था. दुनिया के सबसे बड़े कार्टूनिस्ट डेविड लो से लक्ष्मण बहुत प्रभावित थे। अपने जीवन वृतांत 'द टनेल ऑफ टाइम' में आर के लक्ष्मण ने बताया कि वह बचपन में डेविड लो के नाम को 'काउ' पढ़ा करते थे। बचपन से ही चित्रों और कार्टून से लगाव रखने वाले आर के लक्ष्मण को स्कूली दिनों में पीपल के पत्ते पर बनाए एक चित्र को उनके शिक्षक ने खूब सराहा था। तभी से उनका कार्टून और चित्रों से लगाव बढ़ता चला गया।
लक्ष्मण कहते हैं कि कार्टूनिस्ट कि तुलना बीरबल या तेनालीराम जैसे दरबारी मसख़रों से नहीं की जा सकती। उसी तरह एक प्रजातांत्रिक ढांचे में उसकी भूमिका काफी बदली हुई है। उसका काम होता है अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करते हुए व्यंग्य करना। यानि सत्ता की तलवार के नीचे रहकर डरते हुए नहीं, बल्कि अपने जन्म प्रसिद्ध अधिकार की तरह व्यंग्य करना। उसे आलोचना का भर्त्सना व शिकायत का और प्रशासन व नेताओं के कामकाज में विसंगतियां दिखाने का। आगे वे कहते हैं कि ‘कार्टून बनाना शिकायत करने और असहमति जताने की कला है। इस कला के तहत मज़ाकिया तेवरों में चीजों यानि मुद्दों की एक स्वस्थ पड़ताल की जाती है। सच बताऊँ कार्टूनकार अभिशप्त जीव होते हैं। उन्हें चैन कभी नसीब नहीं होता। मैं किसी विचारवाद को स्वीकार नहीं करता। मैं कोई मिशनरी भी नहीं हूँ। दुनिया के चलन को तोड़कर उसे अपने मन माफिक बनाने की मेरी कोई इच्छा भी नहीं है। मेरी कोई प्रतिबद्धता भी नहीं है। मैं रचना करता हूँ। मैं कोई चिकित्सक नहीं हूँ कि दुनियाँ की बीमारियों का इलाज कर सकूँ।
निष्कर्ष:-
कार्टून का स्थान एक समाचार से भी अधिक अपील
करने वाला होता है, क्योंकि बहुत से ऐसे पाठक होते हैं जो समाचार के पढ़ने के बजाय सबसे पहले
कार्टून को देखना पसंद करते हैं। इसलिए अखबार में कार्टून छपना बेहद अवश्यकता होती
है। कार्टूनों की यही विशेषता हमें आम आदमी को फिर से एक विषय-वस्तु के रूप में
पेश करने में मदद करती है। कार्टून चंद शब्दों के माध्यम से अपनी बात को कहने की
ताकत रखता है। कार्टून इसलिए लोग पसंद करते हैं क्योंकि इसमें हास्यास्पद कला है, जिसके माध्यम से अपनी बात को कहता है। वह हमे जताता है कि अपनी विकृतियों
को पहचान कर उन पर हंस सके। जब मनुष्य हँसता है तो उसके अंदर की सारी थकान दूर हो
जाती है।
संदर्भ
सूची:-लंकनपल्ली, अशोक .(2004). कार्टून पत्रकारिता, नई दिल्ली, साक्षी प्रकाशन
बंसल, वीना .(2014). भारतीय कार्टून कला (व्यंग्य चित्रण), जयपुर, राजस्थान अकादमी
सारस्वत, प्रतिभा .( 24 अक्टूबर, 2015 अक्टूबर, 2015). आर. के. लक्ष्मण आम आदमी की आवाज़, https://www.gaonconnection.com/manoranjan/the-pain-of-a-common-man-created-through-the-cartoon
https://www.gaonconnection.com/gaon-chaupal/pola-is-thanksgiving-festival-for-bulls-and-oxen-by-farmers-in-maharashtra-47950?infinitescroll=1
सिंह, दिवेन्द्र .(24 Oct 2017).https://www.gaonconnection.com/manoranjan/the-pain-of-a-common-man-created-through-the-cartoon?infinitescroll=1
बत्रा, सचिन .(21 दिसंबर,2019). चुपचाप सब देखता कॉमन मैंन, नई दिल्ली, नवभारत टाइम्स
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