गाँधी जी की पत्रकारिता

गाँधी जी की पत्रकारिता आने वाली पीढियां शायद ही विश्वास करे कि गाँधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। - अल्बर्ट आइन्स्टीन अहिंसा के पथ-प्रदर्शक, सत्यनिष्ठ समाज सुधारक, महात्मा और राष्ट्रपिता के रूप में विश्व विख्यात गाँधी सबसे पहले कुशल पत्रकार थे। गाँधी की नजर में पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीय और जनजागरण था। वह जनमानस की समस्याओं को मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे। पत्रकारिता उनके लिए व्यवसाय नहीं, बल्कि जनमत को प्रभावित करने का एक लक्ष्योन्मुखी प्रभावी माध्यम था। महात्मा गाँधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से ही की थी। गाँधी ने पत्रकारिता में स्वतंत्र लेखन के माध्यम से प्रवेश किया था। बाद में साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। बीसवीं सदी के आरम्भ से लेकर स्वराजपूर्व के गाँधी युग तक पत्रकारिता का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस युग की पत्रकारिता पर गाँधी जी की विशेष छाप रही। गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रम और असहयोग आन्दोलन के प्रचार के लिए देश भर में कई पत्रों का प्रकाशन शुरू हुआ। महात्मा गाँधी में सहज पत्रकार के गुण थे | पत्रकारिता उनके रग-रग में समाई हुई थी, जिसे उन्होंने मिशन के रूप में अपनाया था। स्वयं गाँधी के शब्दों में मैंने पत्रकारिता को केवल पत्रकारिता के प्रयोग के लिए नहीं बल्कि उसे जीवन में अपना जो मिशन बनाया है उसके साधन के रूप में अपनाया है/ सन 888 में क़ानून की पढ़ाई के लिए जब गाँधी लंदन पहुँचे उस वक़्त उनकी आयु मात्र 9 वर्ष थी। उन्होंने टेलीग्राफ़ और डेली न्यूज़ जैसे अख़बारों में लिखना शुरू किया। दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान उन्होंने भारतीयों के साथ होने वाले भेदभावों और अत्याचारों के बारे में भारत से प्रकाशित (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिंदू, अमृत बाज़ार पत्रिका , स्टेट्समैन आदि पत्रों के लिए अनेक लेख लिखे व इंटरव्यू भेजे। ये वही दौर था जब अफ़ीका में अश्वेत लोगों के खिलाफ ज़ुल्म की कहानियां पूरी दुनिया सुन रही थी। गाँधी ने ऐसे में अपनी वकालत के ज़रिये उन्हे उनका हक़ दिलाने की कोशिश की। इसी प्रक्रिया में एक बार, वहां के एक कोर्ट परिसर में गाँधी को पगड़ी पहनने से मना कर दिया गया। कहा गया कि उन्हे केस की कार्रवाई बिना पगड़ी के करनी होगी। गाँधी ने पगड़ी उतार दी, केस लड़ा लेकिन वो इस मुद्दे को आगे ले जाने का मन बना चुके थे। अगले ही दिन गाँधी ने डरबन के एक स्थानीय संपादक को खत लिखकर इस मामले पर अपना विरोध जताया। विरोध के तौर पर लिखी उनकी चिट्टी को अख़बार में जस का तस प्रकाशित किया गया। यहीं से गाँधी की पत्रकारिता का सफ़र शुरू हुआ था | विश्व में ऐसे कितने ही लेखक हैं, जिन्होंने यद्यपि किसी पत्र का सम्पादन नहीं किया किंतु लोग उन्हें पत्रकार मान सकते हैं। समाज को समय की कसौटी पर कसनेवाला कोई भी हो, वह पत्रकार कहलाने के योग्य है। गाँधी में जनता की नब्ज़ पहचानने की अद्भुत क्षमता थी और वह उनकी भावनाओं को समझने में देर न लगाते थे। दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों ने और सत्याग्रह के उनके प्रयोगों ने उन्हें इंडियन ओपिनियन नामक पत्र के सम्पादन की प्रेरणा दी। 4 जून 908 को चार भाषाओं में इसका प्रकाशन शुरू किया गया, जिसके एक ही अंक में हिंदी, अंग्रेज़ी, गुजरातीऔर तमिल भाषा में छह कॉलम प्रकाशित होते थे। अफ्रीका तथा अन्य देशों में बसे प्रवासी भारतीयों को अपनेअधिकारों के प्रति सजग करने तथा सामाजिक-राजनैतिक चेतना जागृत करने में यह पत्रिका बहुत महत्वपूर्ण साबितहुई। महात्मा गाँधी दस वर्षों तक इससे जुड़े रहे। इंडियन ओपिनियन का उद्देश्य था दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को स्वतंत्र जीवन का महत्व समझाना। इसी के द्वारा उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार भी प्रारंभ किया। 906 में जोहानेसबर्ग की जेल में उन्हें बंद कर दिया गया तो वहीं से उन्होंने अपना संपादन कार्य जारी रखा। महात्मा गाँधी ने इंडियन ओपिनियन के माध्यम से अफ्रीका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों की समस्याओं को शिद्दत से उठाया। इन्डियन ओपिनियन के जरिए अपने विचारों और सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए देशवासियों के हित में आवाज उठायी। यह गाँधी की सत्यनिष्ठ और निर्भीक पत्रकारिता का असर ही था कि अफ्रीकाजैसे देश में रंगभेद जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद चार अलग्अलग भारतीय भाषाओं में इस अखबार का प्रकाशन होता रहा। महात्मा गाँधी के अनुसार : मेरा ख़्याल है कि कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अख़बार की सहायता के बिना नहीं चलायी जा सकती। अगर मैंने अख़बार निकालकर दक्षिण अफ्रीका में बसी हुई भारतीय जमात को उसकी स्थिति न समझाई होती और सारी दुनिया में फैले हुए भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में क्या कुछ हो रहा है, इसे इंडियन ओपिनियन के सहारे अवगत न रखा होता तो मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। इस तरह मुझे भरोसा हो गया कि अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए अख़बार एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन हैं। दक्षिण अफ्रीका में जब भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई में सफलता प्राप्त हो गई तो वह भारत लौटे। भारत आने के बाद सन 94 में पत्र-प्रकाशन की योजना बनाई। गाँधी जी के समक्ष अनेक पत्रों के संपादन भार ग्रहण करने के प्रस्ताव आए, किंतु उन्होंने सभी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। उस वक़्त के प्रसिद्ध पत्र बाम्बे क्रॉनिकल के सम्पादक पद को भी अस्वीकार कर दिया था। / अप्रैल 99 को बम्बई से सत्याग्रही नाम से एक पृष्ठ का बुलेटिन निकालना शुरू किया जो मुख्यतः अंग्रेज़ी और हिंदी में निकलता था। इसके पहले ही अंक में उन्होंने रोलेट एक्ट का तीव्र विरोध किया और इसे तब तक प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया जब तक कि रोलेट ऐक्ट वापस नहीं ले लिया जाता। गाँधी जैसा महान पत्रकार एवं सम्पादक कदाचित इस देश में पैदा नहीं हुआ। जन समस्याएं ढूँढना और उन समस्याओं को सहज सुलझाने की क़ाबिलियत रखते थे। गाँधी के यंग इंडिया, 'हरिजन और 'हरिजन सेवक में प्रकाशित होने वाले लेखों ने जनचेतना व जन जागरण का काम किया। समस्या और घटना चाहे उड़ीसा की हो या तमिलनाडु की, आंध्र प्रदेश की हो या मलय देश की, उत्तर प्रदेश की हो या मध्यप्रदेश की गाँधी उन समस्याओं और घटनाओं को न सिर्फ़ अपने साप्ताहिक पत्र में उल्लेख थे बल्कि उनपर अपना मत भी देते थे। कई बार उनके मत लोक जीवन के परंपरागत मत से मेल नहीं खाते थे, फिर भी अपने उस मत को व्यक्त करने का ख़तरा उठाते थे। समाचार पत्र न केवल समय की आवश्यकता है, बल्कि देश की रक्षा पंक्ति का बहुत बड़ा बल है। शांत औरअशांत काल में लोकजीवन के आचार-विचार को नियंत्रित करने वाला क्रांतिदूत है। धारणाओं एवं विश्वासों को सजग श्रेष्ठ और समर्पणशील बनाये रखने के लिए एक महान दर्शन भी है, जो गाँधी की पंक्ति-पंक्ति में व्यक्त होता था। गांधी एक ओर वाइसराय को चुनौती का पत्र लिखते थे, वही दूसरी ओर धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, हरिजनों उद्धार, खादी ग्रामोद्योग, शिक्षा, भाषा और गोरक्षा आदि के प्रसंगों की भी चर्चा करते थे। गाँधी ने पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को प्रभावित करने का बड़ा काम किया। गाँधी द्वारा सम्पादित पत्रों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिध्द पत्र था हरिजन।!1 फरवरी 933 को घनश्याम दास बिड़ला की सहायता से हरिजन का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ और गाँधी जो उस समय सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में पूना में जेल में थे| वहीं से पत्र का संचालन करते थे। महात्मा गाँधी की लगभग 50 वर्षों की पत्रकारिता जो उन्होंने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडियन, नवजीवन और हरिजन के माध्यम से की, वह भी राजनैतिक बगावत और सामाजिक बुराइयों पर निरंतर हमला था। गाँधी -युग पत्रकारिता की समृद्धि का युग है। गाँधी युग में जो भी पत्रिकाएँ निकलीं उनमें भाषा, जनचेतना, कलेवर, विचार के दृष्टिकोण से कई बदलाव भी आये। देश के लिए हर प्रकार की स्वाधीनता पाना ही इन पत्रों का मुख्य उद्देश्य था। इस युग में स्वतंत्रता का प्रसार हुआ। कांग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करनेवाले प्रमुख संगठन का रूप ग्रहण कर लिया। गाँधी ने पत्रकारिता को एक हथियार के रूप में प्रयोग किया और अपने सत्याग्रह के आंदोलन को धार देने के लिए उपयोग किया। गाँधी ने लगभग हर विषय पर लिखा और अपना दृष्टिकोण लोगों तक पहुंचाया। गाँधी ने लिखा था, मैंने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया है उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिनको में जरूरी समझता हूं और जो सत्याग्रह, अहिंसा व सत्य के अन्वेषण पर टिकी हैं। हरिजरन द्वारा भी गाँधी ने सामाजिक एकता व बराबरी का संदेश दिया। चूँकि इन समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का उद्देश्य स्वतंत्रता संघर्ष भी था, अंग्रेजों ने गाँधीजी को बड़ा कष्ट दिया मगर गाँधी ने भी यह सिद्ध कर दिया कि वे इस मैदान में भी किसी से कम नहीं थे। सरकार के प्रेस नियंत्रण का सामना गाँधी जी को भी करना पड़ा। प्रेस की स्वतंत्रता के हिमायती गाँधी ने सरकारी आदेशों की अवहेलना की । स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर किसी प्रकार के प्रतिबंध स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि यदि प्रेस सलाहकार को सत्याग्रह संबंधी प्रत्येक सामग्री भेजी जाने लगी तो प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त हो जायेगी। समाचार पत्रों की स्वतंत्रताहमारा परम अधिकार है। अतः हम इस प्रकार के आदेशों को नहीं मान सकते। प्रेस नियंत्रणों के कारण यंग इण्डिया के प्रकाशन को असम्भव देखते हुए सन 980 में उन्होंने लिखा- मैं पत्रकारों और प्रकाशकों से अनुरोध करूँगा कि वे जमानत देने से इनकार कर दें और यदि उनसे जमानत मांगी गई तो इच्छानुसार प्रकाशन बंद कर दे अथवा जमानत जब्त करने के विरुद्ध शासन को चुनौती दें। व्यवसायिक पत्रकारिता से दूर रहते हुए गाँधी ने सदा जनहित एवं मशीनरी भावना से कार्य किया। देश के कोने-कोने में घूमकर संवाददाता एक दो ख़बरे ही लाता है किंतु गाँधी समस्त राष्ट्र का बल अपनी मुट्ठी में ले आये थे। उनकी समस्त पत्रकारिता में उनकी समस्त अभिव्यक्ति में एक महान दर्शन है। महात्मा गाँधी की लड़ाई का एक बड़ा साधन पत्रकारिता रहा है। चाहे दक्षिण अफ्रीका में नस्ल भेद केखिलाफ संघर्ष करते वक्त इंडियन ओपेनियन' का प्रकाशन हो, चाहे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वाधीनता-आंदोलन में सक्रियता के दौरान यंग इंडिया का; या छुआछूत के खिलाफ हरिजरन का प्रकाशन हो। गाँधी पत्रकारिता के जरिए समाज के चेतना-निर्माण का कार्य किया। गाँधी ने अपने किसी भी समाचार पत्र में कभी भी विज्ञापन स्वीकार नहीं किये। गाँधी की पत्रकारिता में उनके संघर्ष का बड़ा व्याहारिक दृष्टिकोण नजर आता है। जिस आमजन, हरिजन एवं सामाजिक समानता के प्रति गाँधी का रुझान उनके जीवन संघर्ष में दिखता है, बिल्कुल वैसा ही रुझान उनकी पत्रकारिता में भी देखा जा सकता है। गाँधी के शब्द और कर्म, चेतना और चिंतन के केंद्र में हमेशा ही अंतिम जन रहता था। वे अंतिम जन की आंख से समाज, देश-दुनिया को देखने के लिये प्रेरित भी करते थे। गाँधी भले ही व्यवसाय से पत्रकार न रहे हों, किन्तु उन्होंने अपनी लेखनी का जिस उत्तरदायित्व के साथ उपयोग किया था और जैसे संयम और अनुशासन का उन्होंने अपने संपादन में उपयोग किया था वह आज दुर्लभ है। गाँधी शब्द की ताकत को बखूबी पहचानते थे इसलिए बड़ी सावधानी से लिखते थे। अपनी लेखनी से वह लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित करते थे। गाँधी की जैसी सरल भाषा और सहज संप्रेषणीयता पत्रकारिता में आज भी आदर्श है। महात्मा गाँधी पाठक के साथ सीधा संवाद करते थे। वह कहते थे कि पाठक नहीं तैयार करना है, पाठक को तैयार करना है। पाठक ऐसा होना चाहिए, जो केवल खबरों को पढ़ता ही न हो बल्कि बार-बार पढ़ता हो। वह इतनी बार पढ़ता हो कि उसे याद हो जाए। महात्मा गाँधी की पत्रकारिता में आत्मा बसती थी, आज की पत्रकारिता में स्थायी भाव नहीं है। यदि गाँधी राष्ट्रपिता न होते तो शायद इस शताब्दी के महानतम भारतीय पत्रकार एवं संपादक होते। संवादी पत्रकार इंग्लैण्ड जाने से पहले गांधी एक सामान्य जिज्ञासु विद्यार्थी थे। इंग्लैण्ड वे पत्रकारिता करने नहीं, बल्कि अपनी पढ़ाई, कैरियर या व्यावसायिक प्रगति के लिए गए थे और फिर इंग्लैण्ड का पाठक उनका पाठक नहीं था। उसके साथ कोई रागात्मक या भावनात्मक संबंध वो नहीं जोड़ सकते थे। इसलिए इंग्लैण्ड जाकर उनको पत्रकारिता का सहारा लेना सांकेतिक हो सकता है, लेकिन वह उनकी मूल आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता। तब तक गांधी, गांधी नहीं थे। उस समय वे चीजों को समझ रहे थे। उन्हें जानने की कोशिश कर रहे थे। वे अंग्रेजों द्वारा निर्मित उसी व्यवस्था में काम कर रहे थे, उसका विरोध नहीं कर रहे थे। विरोध करने के लिए उसकी समझ बनाना जरूरी होता है। जब वे दक्षिण अफ्रीका गए, तो वहां की परिस्थितियां बिलकुल अलग थी। वहां अचानक उन्हें महसूस हुआ कि वो जनता के बीच में हैं और उन्हें इसी जनता के बीच रहना है। वे शासकों का हिस्सा नहीं थे। शासक उन्हें उसी नजर से देखते थे, जैसे अफ्रीकियों या अन्य भारतीय मजदूरों को देखते हैं। गांधी भी ऐसे ही आदमी थे। अफ्रीका में पहली बार उन्होंने यह महसूस किया और पहचाना कि मेरे लोग कौन हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो अफ्रीका ने उन्हें यह पहचान कराई कि उनके अपने कौन हैं और उनका दायित्वया कर्तव्य किनके प्रति है? जब व्यक्ति को यह अहसास हो जाता है, तब उसमें एक मिशनरी की भावना या एक लक्ष्य पैदा होता है कि मुझे यह करना ही चाहिए। दक्षिण अफ्रीका में यह लक्ष्य गांधी से सामने आने लगा। शुरूआत उन्होंने उन्हीं लोगों से की, जो वहां रह रहे थे। जो दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी नहीं थे। जो वहां तीसरी दुनिया के अन्य देशों से मजदूरी या अन्य दूसरे कामों के लिए लाए गए थे और विदेशी सत्ता की अधीनता या गुलामी में काम करते थे। उस गुलामी का अहसास गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका में हुआ। दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ जो घटनाएं घटी, उन घटनाओं ने उन्हें यह अहसास कराया कि गुलामी क्‍या होती है? आधिनायकवाद या उपनिवेशवाद का महत्त्व क्या है? जब यह सब उनके समझ में आ गया तो वे गांधीजी बदलने लगे। इस तरह गांधी का दूसरा संस्करण या दूसरा अवतार दक्षिण अफ्रीका में पैदा हुआ। इसी के चलते उन्होंने द ओपीनियन के माध्यम से वहां उन लोगों की बातें रखनी शुरू की। उस वक्त उन्हें यह अहसास था कि पत्रकारिता के माध्यम से वो केवल उस वर्ग तक पहुंच सकते हैं, जो पढ़ा-लिखा है और किसी-न-किसी रूप में सत्ता से जुड़ा है। चाहे वह उनका छोटा कर्मचारी, क्लर्क वगैरह ही क्‍यों न हो! जो सत्ता के साथ है। इसीलिए इंडियन ओपीनियर्न या उस तरह के दूसरे प्रयासों के माध्यम से ऐसी सांकेतिक बातें सामने आती थी। वास्तविक रूप से उनकी पत्रकारिता की शुरूआत तब होती है, जब वे भारत आते हैं क्‍योंकि यहां उन्हें अपनी बोली, अपनी भाषा में बात करने का मौका मिला। तब उन्हें महसूस हुआ कि सीधे बात कैसे की जाए? जनता से सीधा संवाद कैसे किया जाए ? दोटूक बात कैसे की जाए? दिन-प्रतिदिन की बात कैसे की जाए? असल में गांधीजी की पत्रकारिता मूल रूप से एक संवाद है। अपने पाठकों के साथ, अपने साथ काम करने वाले कार्यकर्ताओं के साथ और आम जनता के साथ संवाद। उस संवाद में शायद पत्रकारिता के शास्त्रीय नियम लागू होते हैं कि नहीं, यह स्पष्टतः नहीं कहा जा सकता | कभी होते होगें तो कभी नहीं होते होंगे। पत्राकारिता के शास्त्रीय नियमों पर शायद ही उन्होंने कभी ध्यान दिया हो। गांधी द्वारा निर्मित परिपाटी के लिए हम यह कह सकते हैं कि ऐसा उन्होंने खुद अपने ऊपर एक अनुशासन लागू करने के लिए किया। इस तरह से उन्होंने पत्रकारिता की भारतीय परिपाटी तैयार की | उस अनुशासन के अनुसार उन्हें क्या कहना चाहिए, क्या नहीं कहना चाहिए, यह उन्होंने खुद तय किया। उन्होंने अपने लिए एक नैतिक आचरण तैयार किया और वह उनकी कथनी, करनी और लेखनी पर भी लागू होता है। उन्होंने न तो पत्रकारिता के लिए कोई नियम बनाया और न ही पत्रकारिता के किसी नियम का अनुसरण किया। उन्होंने अपनी भाषा में, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का काम किया। इसके लिए उन्होंने उस माध्यम का, उस वक्त की तकनीक का उपयोग किया। अपनी आत्मकथा में गांधीजी अपने जीवन को सत्य के साथ किए गए प्रयोग के रूप में देखते हैं। ऐसा ही उनकी पत्रकारिता के साथ भी नजर आता है, जिसकी शुरूआत उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से की थी, लेकिन जब वे भारत आए तो चुनौतियां बदल गयी। भारतीय परिस्थितियां दक्षिण अफ्रीका से अलग थी। दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों से वे अपने लोगों और उनकी समस्याओं को पहचान चुके थे। लेकिन उस समय की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकत से लोहा लेने के लिए उन्होंने शुरूआती स्तर पर पत्रकारिता को चुना। शुरूआत उन्होंने अंग्रेजी पत्रकारिता से की और बाद में वे भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता की ओर मुड़े। गांधीजी के लेखन को एक तरह से प्रतिरोध कहा जा सकता है।उनका शुरूआती लेखन 'संपादक को पत्र; लैटर टू एडिटर के रूप में हमारे सामने आता है। जब पाठक क्षुब्ध होता है, उसे गुस्सा आता है या वो असहमत होता है तो वह कुछ लिख देता है और वह छप जाता है। उस तरह का प्रतिरोध गांधीजी के शुरुआती लेखन में मिलता है। लेकिन धीरे-धीरे जब उन्हें यह महसूस हुआ कि उस वर्ग में उन्हें एक ऐसा पाठकवर्ग मिल सकता है, जो पहले से है और शायद वह उनकी बात सुन सकता है। जो सत्तारूढ़ वर्ग का हिस्सा नहीं है, वह उस जाति या समुदाय या राष्ट्र का हिस्सा हो सकता है। सत्तारूढ़ वर्ग के विचारों से वह असहमत है। अपने घर में भी वह उनसे असहमत है। यानी इंग्लैण्ड में रहकर भी वह अपनी सरकार, अपनी पार्टी और अपने लोगों के खिलाफ लिखता भी है। ऐसे में गांधीजी को लगा कि यहां भी ऐसे लोग हैं, जो अपनी ही सरकार की ज्यादतियों को गलत मानते हैं, उन तक पहुंचना चाहिए। इसलिए जब उन्होंने भाषा को मांजने की बात शुरू की तो स्वाभाविक है कि वे गुजराती थे। भले ही उन्होंने अंग्रेजी से बैरिस्टरी की हो, लेकिन बोलने-चालने का जो तरीका होता है, वह हमारा अपना ही होता है। उसे हम अपनी कहावतें, लोकोक्तियों और मुहावरों में ही आसानी से व्यक्त कर पाते हैं। हिंदुस्तानी मुहावरे में अगर आप अंग्रेजी लिख भी दें तो उसे हम भारतीय भले ही आपस में समझ लें, लेकिन अंग्रेज शायद नहीं समझ पाएगा कि क्या बात कही जा रही है। यह गांधी का अपना प्रशिक्षण था। महात्मा गांधी - एक पत्रकार गांधी अखबारों के नियमित पाठक 9 साल की उम्र में इंग्लैण्ड पहुंचने के बाद बने | भारत में अपने स्कूली जीवन के दौरान उन्होंने अखबार नहीं पढ़ा | वो इतने शर्मीले थे कि किसी की मौजूदगी में उन्हें बोलने में भी झिझक होती थी | 2 की उम्र में उन्होंने पहले नौ लेख शाकाहार के ऊपर एक अंग्रेजी साप्ताहिक द वेजीटेरियन के लिए लिखे. इसमें शाकाहार, भारतीय खानपान, परंपरा और धार्मिक त्यौहार जैसे विषय शामिल थे | उनके शुरुआती लेखों से ही यह आभास मिल जाता है कि उनमें अपने विचारों को सरल और सीधी भाषा में व्यक्त करने की क्षमता थी | दो सालों के अंतराल के बाद गांधी ने एक बार फिर से पत्रकारिता की कमान थामी | इसके बाद उनकी लेखनी ने जीवन के अंत तक रुकने का नाम नहीं लिया | उन्होंने कभी भी कोई बात सिर्फ प्रभाव छोड़ने के लिए नहीं लिखी न ही किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया | उनके लिखने का मकसद था सच की सेवा करना, लोगों को जागरुक करना और अपने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होना | दक्षिण अफ्रीका आने के तीसरे दिन ही उन्हें कोर्ट में अपमानित किया गया। उन्होंने इस घटना का विवरणएक अखबार में लेख लिखकर सबको दिया और रातोंरात सबके चहेते बन गये। 35 की उम्र में उन्होंने इंडियन ओपिनियन की जिम्मेदारी संभाली और इसके जरिए उन्होंने द अफ्रीका में मौजूद भारतीयों को एकजुट करने का काम किया। इसका गुजराती संस्करण भी फिनिक्स से साथ ही प्रकाशित होता था। गुजराती संस्करण में खानपान संबंधी लेखों के अलावा महान व्यक्तियों की कहानियां और चित्र प्रकाशित होते थे। हर संस्करण में गांधीजी का लिखा लेख जरूर होता था। सहायता के लिए एक संपादक भी था लेकिन सारा बोझ गांधी के कंधे पर ही होता था। वे लोगों के विचारों को बदलना चाहते थे, भारतीयों और अंग्रेजों के बीच मौजूद गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे और साथ ही भारतीयों की कमियों की तरफ भी उनका इशारा होता था। वे अपने लेखों में पूरी ताकत झोंक देते थे। दक्षिण अफ्रीका में शुरू किए गए सत्याग्रह की उपयोगिता लोगों को समझाने के लिए उन्होंने विस्तृत लेख लिखे। उनके लेखों से विदेशों में मौजूद उनके पाठक दक्षिण अफ्रीका में चल रही स्थितियों से वाकिफ होते रहते थे। उनके प्रतिष्ठित पाठकों में भारत में गोपाल कृष्ण गोखले, इंग्लैण्ड में दादाभाई नौरोजी और रूस में टॉलस्टॉय शामिल थे। दस सालों तक गांधी ने इन साप्ताहिकों के लिए अथक मेहनत की। उन्हें हर संस्करण के प्रकाशन के बाद हर हफ्ते दो सौ से ज्यादा पत्र आते थे। वे उन सबको ध्यान से पढ़ते थे और फिर उन्हें अपनी पत्रिका में शामिल करते थे ताकि इंडियन ओपिनियन के पाठकों को उनसे फायदा हो। गांधी समझ गए थे कि अखबार उनके विचारों को फैलाने का सबसे ताकतवर जरिया हो सकते थे। वो एक सफल पत्रकार थे लेकिन उन्होंने कभी भी पत्रकारिता को अपनी आजीविका का आधार बनाने की कोशिश नहीं की। उनकी राय में पत्रकारिता एक सेवा थी, पत्रकारिता कभी भी निजी हित या आजीविका कमाने का जरिया नहीं बनना चाहिए। और अखबार या संपादक के साथ चाहे जो भी हो जाय लेकिन उसे अपने देश के विचारों को सामने रखना चाहिए नतीजे चाहे जो हों। अगर उन्हें जनता के दिलों में जगह बनानी है तो उन्हें एकदम अलग धारा का सूत्रपात करना होगा। जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन की जिम्मेदारी संभाली उस समय उसकी प्रसार संख्या 400 थी और वह अपना असर खो रहा था। कुछ महीनों तक गांधी को इसमें 200 रुपए प्रतिमाह निवेश करना पड़ा। कुल मिलाकर इस प्रक्रिया में उन्हें 20,000 रुपए का नुकसान हुआ। इतने बड़े नुकसान के बावजूद एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने अखबार में प्रकाशित होने वाले सारे विज्ञापनों पर रोक लगा दी ताकि वे अपने विचारों को ज्यादा से ज्यादा स्थान दे सकें। उन्हें पता था कि अगर वे विज्ञापन लेते रहे तो वे अपने विचारों और सच की सेवा और आजादी को बनाए नहीं रख पाएंगे। उन्होंने अपनी पत्रिका का प्रसार बढ़ाने के लिए किसी गलत तरीके का इस्तेमाल नहीं किया, ना ही कभी दूसरे अखबारों से स्पर्धा की। भारत में भी वे इन सिद्धांतों पर कायम रहे। 30 सालों तक उन्होंने बिना किसी विज्ञापन के अपना प्रकाशन जारी रखा। उनकी सलाह थी कि हर राज्य में विज्ञापन का सिर्फ एक ही तरीका होना चाहिए, ऐसी चीजें प्रकाशित हों जो आम लोगों के काम की हों। यंग इंडिया का संपादकीय संभालने के बाद वो एक गुजराती अखबार निकालने के लिए उत्सुक थे। अंग्रेजी का अखबार निकालने में उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। उन्होंने हिंदी और गुजराती में नवजीवन के नाम से नया प्रकाशन शुरू किया। इनमें वे रोजाना लेख लिखते थे। उन्हें यह बात बताने में गर्व का अनुभव होता था कि नवजीवन के पाठक किसान और मजदूर हैं जो कि असली हिंदुस्तान है। काम के अतिशय बोझ के चलते उन्हें देर रात तक या फिर सुबह से ही काम करना पड़ता था। वे अक्सर चलती ट्रेनों में लिखते थे। जब उनका एक हाथ लिखने से थक जाता तो वे दूसरे हाथ से लिखने लगते। तमाम व्यस्तताओं के बीच भी वे रोजाना तीन से चार लेख लिखते थे। भारत में उन्होंने कोई भी अखबार घाटे में नहीं चलाया। अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के अखबारों की प्रसार संख्या 4हजार के आसपास थी। जब उन्हें जेल हो गई तब इनकी प्रसार संख्या 300 तक आ गई। जब वे पहली बार जेल से बाहर निकले तो उन्होंने हर संस्करण में अपनी आत्मकथा छापने का सिलसिला शुरू किया। यह तीन साल तक लगातार प्रकाशित होता रहा और इसने पूरी दुनिया में हलचल पैदा की। गांधीजी ने लगभग सभी भारतीय अखबारों को अपनी जीवनी छापने की छूट दे रखी थी। जेल में रहते हुए उन्होंने एक और साप्ताहिक हरिजन का प्रकाशन शुरू कर दिया। यंग इंडिया की तरह ही इसकी भी कीमत एक आना थी‌। यह अछूतों को समर्पित था। सालों तक इसमें कोई राजनीतिक लेख प्रकाशित नहीं हुआ। पहले इसे हिंदी में निकाला गया। गांधी को जेल में रहते हुए हफ्ते में तीन लेख लिखने की छूट थी। इसका अंग्रेजी संस्करण शुरू करने के प्रस्ताव पर उन्होंने अपने एक मित्र को चेतावनी दी, खबरदार यदि आपने अंग्रेजी संस्करण निकाला। हरिजन जब तक पूरी तरह स्थापित न हो जाय, पढ़ने लायक लेख न हों और ट्रांसलेशन स्तरीय न हो तब तक नहीं। हिंदी संस्करण के साथ संतोष करना बेहतर है, आधा-अधूरा अंग्रेजी संस्करण निकालने के। मैं तब तक ऐसा नहीं कर सकता जब तक कि यह अपने पैरों पर खड़ा न हो जाय | उन्होंने शुरुआत में तीन महीने तक 20,000 कॉपी प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा था. दो महीनों के दौरान ही यह अपने पैरों पर खड़ा हो गया. बाद में यह विचारों का बेहद लोकप्रिय पत्र बनकर उभरा. लोग इसे किसी मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ते थे बल्कि गांधीजी से निर्देश लेने के लिए पढ़ते थे. यह हिंदी, उर्दू, गुजराती, तमिल, तेलगू, उड़िया, मराठी, कन्‍्नड़, बंगाली भाषाओं में प्रकाशित होता था. गांधी अपने लेख हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और उर्दू में लिखते थे. उनके अखबारों में कभी कोई सनसनीखेज समाचार नहीं होता था. वे बिना थके सत्याग्रह, अहिंसा, खानपान, प्राकृतिक चिकित्सा, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत, सूत काटने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और निषेध पर लिखते थे. वे शिक्षा व्यवस्था के बदलाव, और खानपान की आदतों पर जोर देते थे | वे कठोर टास्कमास्टर थे | उनके सचिव महादेव देसाई को अक्सर ट्रेनों के शौचालयों में बैठकर काम करना पड़ता था ताकि गांधीजी के काम समय पर पूरे हो सकें। उनके सहयोगियों को एक-एक ट्रेन के स्टेशनों पर पहुंचने का समय और पोस्टल डिस्पैच का समय पता रहता था ताकि गांधीजी के लेखों को समय से पहुंचाया जा सके | एक बार गांधी ट्रैन में यात्रा कर रहे थे और ट्रेन लेट होने के कारण उनका लेख समय से डिस्पैच नहीं हो सका लिहाजा संदेशवाहक ने उनका अंग्रेजी लेख भेज दिया और वह अहमदाबाद की बजाय मुंबई से समय रहते प्रकाशित हो गया | गांधीजी 99 में एक साप्ताहिक सत्याग्रह के नाम से निकालते थे जो कि रजिस्टर्ड नहीं था | सरकार के आदेशों की अवहेलना करके वो ऐसा कर रहे थे | एक पन्ने का यह पत्र एक पैसे में बिकता था| सालों तक खुद एक शानदार पत्रकार होने के नाते व पत्रकारिता और उसकी परंपराओं पर पूरे अधिकार से बोलते थे।| सत्य और विचार की पक्षधर महात्मा गांधी की पत्रकारिता सत्य, संयम, मानवता और विचार की पक्षधर थी। गांधी की पत्रकारिता यह सिखलाती है कि किस तरह कौम की सहायता से अखबार निकाला जा सकता है। गांधी ने अपने साथ हुए अन्याय को एक चुनौती के रूप में लिया और अपनी कलम से उसका प्रतिकार किया। पत्रकारिता का काम ही संचार और संप्रेषण है, यह सत्य पर आधारित होना चाहिए। गांधी ने यह काम किया। इसलिए कहा जा सकता है कि गांधी 20वीं सदी के सबसे बड़े पत्रकार थे। गांधी जी ने इंडियन ओपिनियन में 'अवर सेल्फ शीर्षक से जो संपादकीय लिखा था वह संयम की सीख देता है। इसी तरह वे अपने से असहमति रखने वालों के विचारों को भी महत्व देते थे। यह भी संयम का ही प्रमाण है। गाँधीजी एक संपादक के रूप में यदि गाँधीजी राष्ट्रपिता न होते तो शायद इस शताब्दी के महानतम भारतीय संपादक होते। अपने छात्र काल से ही उन्हें लिखने व नाना प्रकार की ऐतिहासिक, साहित्यिक व अन्य विषयों की पुस्तकें पढ़ने का चाव था। उनके स्कूल व कॉलेज के लाइब्रेरियन उनसे खीझ जाते थे कि यह छात्र तो कहा-कहाँ से दूँढकर पुस्तक सूचिका लाता है और किताबें माँगता है। लिखने का चाव गाँधीजी को कितना अधिक था, इस बात का अनुमान ऐसे लगाया जा सकता है कि वे अपने दाएँ व बाएं दोनों हाथों से लिखा करते थे। यही नहीं, वे समुद्र में हिचकोले लेते जहाज पर, चलती रेल में और पथरीले रास्ते पर चलती मोटर गाड़ियों में भी लिख लिया करते थे। लिखते-लिखते जब एक हाथ थक जाता था तो वे दूसरे हाथ से लिखना प्रारंभ कर देते थे। ।896 में जब गाँधीजी इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रीका जा रहे थे तो जहाज पर उन्होंने एक पुस्तक ग्रीन पैम्फ्लेट' की रचना की। इसी प्रकार जहाज में ही उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक हिन्द स्वराज लिखी। जब बाएँ हाथ से लिखते तो अंग्रेजी और दाएँ हाथ से लिखते तो गुजराती और उर्दू खूबसूरती से लिखा करते थे। लिखने की रफ्तार उनके चलने की रफ्तार से कहीं तेज होती। आवश्यकता पड़ने पर स्वयं टाइप भी कर लिया करते थे। गाँधीजी जो पुस्तक पढ़ते थे, उनसे न केवल वे स्वयं सीखते थे बल्कि दूसरों को भी अच्छाई का संदेश देते थे क्योंकि उन पुस्तकों का निचोड़ वे अपने लेखन में भी देते थे। उनका पुस्तकें पढ़ने का एक उद्देश्य यह भी होता था कि उसको वे अपने संपादकीय लेखन में शामिल करें। जो पुस्तकें उन्हें अत्यधिक पसंद थीं वे हैं- ड्यूटीज ऑफ मैर्न [लेखक : मजीनी), ऑन द ड्यूटीज ऑफ सिविल डिसओबीडियर्न्स (लेखक : एच.डी. थोरो), द की टू थियोसॉफी' (लेखिका : मादाम ब्लावाट्स्की), पॉवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' (लेखक : दादाभाई नौरोजी), द लाइट ऑफ एशिया' (लेखक : एडिवन आर्नल्ड) आदि। इन सभी विश्व विख्यात पुस्तकों का निचोड़ गाँधीजी ने एक बहुचर्चित पुस्तक कन्स्ट्रक्टिव प्रोग्राम में दिया। जो लेख या पुस्तकें गाँधीजी ने लिखीं उनमें कहीं भी संपादक द्वारा लाल निशान नहीं लगता था, न ही कोई तथ्य बदला जाता था। सर पेथिक लॉरेंस ने तो यह भी कह दिया था कि भारत में गाँधी से अच्छा अंग्रेजी लेखक कोई नहीं है। उनकी यह विशेषता थी कि एक शब्द भी अपने कलम या मुख से बेवजह नहीं कहते थे। लिखते ऐसे थे मानो सामने बैठकर बात कर रहे हों। सर ए.वी, एलेक्जान्डर ने कहा था कि गाँधीजी के संपादकीय लेखों का एक-एक वाक्य 'थॉट फॉर द डे' के लिए मुनासिब था। हर वाक्य को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता था मानो दस-दस बार तौला गया हो। उर्दू पत्रिका मखजिरन में मौलाना आजाद ने गाँधीजी के लेखन के बारे में लिखा है- मेरी तरह ही महात्मा साहब को भी लिखने की कभी न खत्म होने वाली भूख थी। गाँधीजी की बदकिस्मती यह थी कि इस कला को सियासत ने उस दर्ज तक नहीं उठने दिया जैसा कि चाहते थे। कितने ही लेख और पुस्तकें इस कारण गाँधीजी के कलम से पूर्ण न हो सके मौलाना आजाद ने अपने एक अन्य पत्र में लिखा है कि गाँधीजी की अंग्रेजी ड्राफ्टिंग ऐसी थी कि स्वयं अंग्रेज पत्रकार और लेखक दाँतों तले उँगली दबा लेते थे। गाँधीजी के लिखने की यह हालत थी कि जबवे मध्य भारत के छोटे कस्बों और देहातों में बैलगाड़ियों में यात्रा कर रहे होते थे तो अपनी गुजराती पत्रिका का संपादन भी किया करते थे और राजनीति के दाँव-पेचों से भी निपटा करते थे। उनके पास इस पत्रिका की कई फाइलें होती थीं। रात को जब सबसो जाते थे तो दो-तीन बजे तक संपादन कार्य चलता था। सारा कार्य वे स्वयं करते, किसी की सहायता नहीं लेते। सन्‌ 1904 में गाँधीजी ने 'इंडियन ओपीनियर्ना का संपादन संभाला। इसका उद्देश्य था दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को स्वतंत्र जीवन का महत्व समझाना। इसी के द्वारा उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार भी प्रारंभ किया। एक संपादकीय में गाँधीजी ने लिखा कि सत्याग्रह का नारा उन्होंने अमेरिकी लेखक एच.डी. थोरो से लिया, जिसमें थोरो ने अमेरिकी सरकार को बढ़ा हुआ चुंगी कर देने से इंकार कर दिया था और इसके लिए थोरो को जेल भी जाना पड़ा था। गाँधीजी को धार्मिक ग्रंथों व पुस्तकों से बड़ा लगाव था। एक पत्र में उन्होंने मौलाना आजाद को लिखा कि धर्म के बिना किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व पूर्ण नहीं है। उन्होंने सभी धार्मिक ग्रंथ अनुवाद सहित पढ़ रखे थे। गाँधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी भी आती थी। बहुत कम लोगों को इस बात का ज्ञान था । धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित हिन्दी के प्राइमरी स्तर के बच्चों की नैतिक शिक्षा हेतु गाँधीजी ने एक पुस्तक रची- 'बाल पोर्थी। इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए नीति धर्म नामक पुस्तक भी गाँधीजी द्वारा लिखी गई, जिसमें उनके द्वारा बच्चों को लिखे गए पत्र शामिल हैं। यह बात भी कम लोग जानते हैं कि गाँधीजी के जीवन से बच्चे इतने प्रभावित थे कि आए दिन उनको चिट्ठियाँ लिखते थे और गाँधीजी प्रत्येक बच्चे को अपने हाथ से जवाबी पत्र लिखते थे। पत्रिकाओं के संपादन के अतिरिक्त महात्मा गाँधी एक दक्ष अनुवादक भी थे। रस्किन की विख्यात पुस्तक अन टू द लास्ट का अनुवाद गाँधीजी ने गुजराती में किया और यह 'सर्वोदय' के नाम से प्रचलित हुआ। इसी प्रकार आश्रम भजनावली' का अनुवाद उन्होंने अंग्रेजी में किया। ऐसे ही जब गाँधीजी जेल में थे तो उन्होंने संस्कृत के कुछ जाने-माने श्लोकों का अनुवाद अंग्रेजी में सांग्ज फ्रॉम द प्रिजन' के रूप में किया। वे जेल में ही बाइबल का भी गुजराती में अनुवाद करना चाहते थे मगर जेल से जल्दी छूटने के कारण यह कार्य संपन्‍न नहीं हो सका। यंग इंडिया' का संपादन जब गाँधीजी ने प्रारंभ किया तो यह बड़ा पसंद किया गया। लोगों ने जोर डाला कि इसका एक संस्करण गुजराती में भी प्रकाशित किया जाए। गाँधीजी ने जनता की इच्छा को सम्मान देते हुए गुजराती संस्करण को 'नवजीवन का नाम दिया। यह तो इतना अधिक चला कि बाजार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाता और इसके चाहने वाले दुकान-दुकान पर पूछते-ढूँढते फिरते। हरिजर्न द्वारा भी गाँधीजी ने सामाजिक एकता व बराबरी का संदेश दिया। चूंकि इन समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का उद्देश्य स्वतंत्रता संघर्ष भी था, अँगरेजों ने गाँधीजी को बड़ा कष्ट दिया मगर गाँधीजी ने भी यह सिद्ध कर दिया कि वे इस मैदान में भी किसी से कम नहीं थे। इंडियन ओपिनियन गांधी को नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना (22 अगस्त, 1894) और बोअर-युद्ध की समाप्ति के बाद एक समाचार-पत्र की आवश्यकता महसूस होने लगी। मद्रास के पी.एस. अय्यर ने 1898 में इंडियन वर्ड ' आरंभ किया और उसके बंद होने के बाद 900 में कॉलोनिअल इंडियन न्यूर्जा नाम से दूसरा समाचास्पत्र निकाला। परंतु यह पत्र भी 1903 में बंद हो गया। मदनजीत व्यावहारिक, जो गांधी के सहयोगी थे, उनकी 1898 से डरबन में दि इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस थी और इसी में नेटाल इंडियन कांग्रेस का साहित्य छपता था। बे कांग्रेस के कार्यों में भी सक्रिय थे। गांधी ने मदनजीत को एक समाचार-पत्र निकालने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार इंडियन ओपिनियर्न॑ का जन्म हुआ और इसका पहला अंक 4 जून, 903 को निकला। इसके पहले संपादक बने मनसुखलाल हीरालाल नाजर, जो बंबई में पत्रकार रहे थे तथा गांधी उन्हें ।89/ से जानते थे। नाजर ने आरंभिक संकटावस्था में इसके संपादन का भार सँभाला परंतु संपादन का सच्चा बोझ तो गांधी पर ही था, क्योंकि नाजर यह मानते थे कि दक्षिण अफ्रीका के अटपटे विषयों पर गांधी ही बेहतर तरीके से लिख सकते हैं। गांधी ने इसके प्रवेशांक में अपनी बात शीर्षक से अग्रलेख लिखा, जो एक प्रकार से संपादकीय वक्तव्य ही था। यह अग्रलेख अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी तथा तमिल में प्रकाशित हुआ। इस प्रकार इंडियन ओपिनियन चार भाषाओं में निकला, परंतु हिंदी एवं तमिल संस्करण 4 जून, 1905 से 2/ जनवरी, 1996 तक तथा बाद में 3 दिसंबर, 1898 से 8 अप्रैल, 1894 तक ही प्रकाशित हुए। इसका कारण हिंदी-तमिल के अच्छे अनुवादकों का न मिलना तथा आर्थिक संकट भी था। गांधी का उद्देश्य दक्षिण अफ्रीका के भारतीय समाज की भावनाओं को प्रकट करने, उनके हित के कार्य करने तथा गोरों के संदेहों को दूर करने के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के अनेक वर्गों में सद्भाव तथा प्रेम को बढ़ाना था। गांधी के भारत प्रस्थान करने तक अर्थात्‌ 8 जुलाई, 1894 तक 'इंडियन ओपिनियन ' के 58 अंक निकले, जिनकी कुल पृष्ठ संख्या 3,544 के लगभग थी। गांधी के समय इसकी सर्वाधिक संख्या 3500 तक थी, किंतु गांधी के जाने के बाद 1895 में ग्राहकों की संख्या 900 ही रह गईं गांधी के भारत जाने के बाद 1896 से 1958 तक मणिलाल गांधी इसके संपादक रहे और गांधी समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहे। मणिलाल गांधी की 1958 में मृत्यु होने के बाद सुशीला इसकी संपादक बनी। उन्होंने इसका नाम बदलकर 'ओपिनियरन' रखा | गांधी ने इंडियन ओपिनियर्न के प्रवेशांक में यद्यपि समाचार पत्र के उद्देश्यों की चर्चा की थी, किंतु वे बार-बार अपने उद्देश्यों की चर्चा करते रहे | इंडियन ओपिनियर्ना के भविष्य को लेकर गांधी की अध्यक्षता में एक बैठक 28 अप्रैल, ।996 को डरबन स्थित उमर हाजी आमद झवेरी के घर हुई गांधी ने वित्तीय संकट का ब्योरा दिया और प्रेस में एक भी कर्मचारी के रहने तक अंग्रेजी संस्करण को निकालने का व्रत लिया। इस बैठक में गांधी ने उद्देश्यों की भी चर्चा की, जो (इंडियन ओपिनियर्ना के 28 अप्रैल, 906 के अंक में छपे। ये उद्देश्य निम्नलिखित थे - ० हिंदुस्तानियों के दु:खों को शासनकर्ताओं एवं गोरों के सामने तथा इंग्लैण्ड, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में जाहिर करना। ० हिंदुस्तानियों के दोषों को उन्हें बताना तथा उन्हें दूर करने के लिए प्रेरित करना | ० हिंदुस्तानियों में हिंदू-मुसलमान के बीच के भेद को तोड़ना तथा गुजराती, तमिल, बंगाली आदि की क्षेत्रीय खाइयों को पाटकर एकता पैदा करना। ० इन विचारों को प्रजा में दृढ़ करना तथा प्रजा को शिक्षित करना। गांधी हिंदुस्तानियों को जाग्रत एवं संगठित कर रहे थे। गांधी ने 28 अप्रैल, 906 के लेख में लिखा 'इस समाचार-पत्र की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है इसलिए उनकी भावनाओं को प्रकट करने वाले और विशेष रूप से उसके हित में संलग्न समाचार-पत्र का प्रकाशन अनुचित नहीं समझा जाएगा, बल्कि हम समझते हैं, उससे एक कमी पूरी होगी। हमें अपने देशवासियों के उदार सहारे का भरोसा है। जो महान्‌ ऐग्लो-सैक्सन कौम सप्तम एडवर्ड को अपना राजाधिकार कहती है, क्या हम उससे भी यही आशा नहीं कर सकते ? क्योंकि हमारा उद्देश्य इस एक शक्तिशाली साम्राज्य के अनेक वर्गों में सदभाव तथा प्रेम बढ़ाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।' तब उनका ब्रिटिश सत्ता की न्यायप्रियता के प्रति विश्वास बना हुआ था। गांधी हिंदुस्तानियों और अंग्रेजों के बीच के अविश्वास और विरोध को दूर करना चाहते थे और इसके लिए ब्रिटिश सत्ता का सहयोग आवश्यक था। गांधी ने 9 जनवरी, 908 को जे. स्टुआर्ट को पत्र में लिखा था यह (इंडियन ओपिनियन ') दक्षिण अफ्रीका के दो महान्‌ समाजों के बीच दुभाषिए की तरह काम करता है, इसलिए मेरी नग्न सम्मति में यह एक मूल्यवान्‌ सेवा कर रहा है। इसका उद्देश्य साम्राज्य-भावना का पोषण है, यद्यपि यह दक्षिण अफ्रीका के ब्रिटिश भारतीयों की शिकायतों पर जोर देता है और उसे जोर देना भी चाहिए, यद्यपि वह प्रायः: भारतीय समाज की भावनाओं को नरम बनाता है और उसे साफ तौर पर उसकी त्रुटियाँ बताने से कभी नहीं चूकता। इस कारण गांधी में इंडियन ओपिनियन के प्रकाशन काल में ब्रिटिश विधान में विश्वास, ब्रिटिश नागरिकता के लाभ और राष्ट्रों के कुल के रूप में साम्राज्य के प्रति सकारात्मकता का भाव बना रहा। गांधी ने अपनी नीति के अनुरूप ब्रिटिश-साम्राज्ञी के प्रत्येक जन्म दिवस पर बधाई संदेश भेजे और उनके देहावसान पर शोक-सभाओं का आयोजन किया। गांधी ब्रिटिश भारतीय को सम्राट की राजभक्त प्रजा मानते थे और ब्रिटिश विधान में भरोसा रखते हुए उसे चोट पहुँचाना उचित नहीं मानते थे। उन्होंने इंडियन ओपिनियन में एलिजाबेथ फ्राई (9 अगस्त, 1905), अब्राहम लिंकन (20 अगस्त, 1905), काउंट टॉल्सटॉय (2 सितंबर, 1905), फ्लॉरेंस नाइटिंगेल (9 सितंबर, 1908), स्वर्गीय कुमार मैनिंग (6 सितंबर, 1905), डॉक्टर बरनार्डो (/ अक्तूबर, 1905), सर हेनरी लॉरैंस (4 अक्तूबर, 1905), सर टॉमस मनरो (26 अक्तूबर, 1905), लॉर्ड मेटकाफ (4 नवंबर, 1905), माउंट स्टुआर्ट एल्फिंस्टन (8 नवंबर, 1905) आदि का जीवन-परिचय प्रकाशित किया। गांधी में यह भाव इंग्लैण्ड के शिक्षण-काल से ही था और प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने तक बना रहा। गांधी की इस नीति के कारण अनेक गोरे उनके सहायक बने। गोरों के समाचार-पत्रों ने उनकी मदद की । यूरोप के अनेक बुद्धिजीवी, लेखक आदि भी उनके समर्थन में सामने आए। 'इंडियन ओपिनियर्न का प्रमुख उद्देश्य तो दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानी समाज को जाग्रत व शिक्षित करना और उसे मानवाधिकार दिलाना था। गांधी ने लिखा था कि समाचार-पत्र का प्रकाशन देशवासियों की सेवा के लिए है। गांधी का मानना था कि हिंदुस्तानियों के स्वाभिमान और अधिकारों की लड़ाई आत्मबल से की जा सकती है। गांधी ने समाचार-पत्र का आश्रय लिया और उसे अपनी आत्मा का रस देकर द्विगुणित शक्ति प्रदान की। गांधी ने लिखा भी है कि मैं इंडियन ओपिनियर्न को प्रति सप्ताह अपनी आत्मा उडेलता था और अपने सत्याग्रह के रूप को समझाने का प्रयत्न करता था। इसी प्रकार समाचार पत्र के उपयोग पर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास पुस्तक में लिखा मेरी मान्यता है कि जिस लड़ाई का आधार आंतरिक बल हो, वह लड़ाई अखबार के बिना चलाई जा सकती है, किंतु साथ ही मेरा अनुभव यह भी है कि इंडियन ओपिनियन ' के होने से हमें कौम को आसानी से शिक्षा दे सकने और संसार में जहाँ-जहाँ हिंदुस्तानी रहते थे, वहा-वहाँ हमारी हलचलों की खबरें भेजते रहने में आसानी हुई। यह सब काम कदाचित्‌ किसी दूसरी रीति से नहीं किए जा सकते थे। इसलिए यहनिश्रित रूप से कहा जा सकता है कि लड़ाई के साधनों में इंडियन ओपिनियर्ना भी एक बहुत उपयोगी और सबल साधन था।' दक्षिण अफ्रीका के सभी राज्यों-नेटाल, ट्रांसवाल, जोहान्सबर्ग, डरबन, फेक्सरस्ट, प्रिटोरिया, केप, आरेंज फ्री स्टेट सभी में हिंदुस्तानियों पर अनेक प्रतिबंध थे। उन्हें बस्तियों एवं बाजारों तक सीमित कर दिया गया, उनके प्रवास एवं मताधिकार पर प्रतिबंध लगे, पंजीयन एवं अनुमति-पत्र अनिवार्य बनाया गया, फेरीवालों को नए परवाने लेने का आदेश निकला, ट्रांसताल एशियाई पंजीयन अधिनियम जैसा खूनी कानून पास हुआ तथा पौंड का कर लगाया गया। गांधी ने इन सबके लिए संघर्ष किया, सत्याग्रह शब्द का आविष्कार करके उसके सिद्धांत बनाए, हड़तालें कीं और कई बार जेल गए, हथकड़ी पहनाकर अदालत तक ले जाया गया, कठोर कारावास की सजा हुई, जेल के फर्श-दरवाजे साफ किये और एक मिशाल कायम किये | वर्ष 1903 गांधी की यह तीसरी यात्रा उनके जाया परिवर्तन और गंभीर विचारों का आवर्तन थी। दी क्रिटिक के उपसंपादक मिस्टर पोलक जो गांधी के अभिन्‍न मित्र थे उन्होंने रस्किन की पुस्तक <अंट्र दिस लास्ट पढने के लिए दिया। अपने विचार, दक्षिण अफ्रीका का मानवीय अत्याचार तथा परिवर्तन का आकार कैसे संपूर्ण अफ्रीका तथा विश्व में संचरित हो, इसके लिए और पत्रकारिता का कार्य लिए गांधी का पत्रकार मन अपनी व्यवस्था द्वारा प्रकाशित पत्र की ओर भागने लगा। पत्र अनुभव तथा प्रभाव और प्रवाह गांधीजी के जीवन में स्पष्ट हो चुका था। अपने प्रमुख पत्रकार मित्रों तथा महत्वपूर्ण संपादकों के साथ काम करने का अनुभव उन्हें संपूर्ण रूप से एक पत्रकार बना चुका था। मई 894 में स्थापित नेटाल-इंडियन-कांग्रेस को भी अपनी आवाज बुलंद करने के लिए कोई माध्यम नहीं था। अतःइंडियन ओपीनियर्ना की अवधारणा परिस्थितिजन्य थी। अखबार गांधी के लिए शांति अस्त्र का स्वरूप धारण कर लिए थे, गुलामी, स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व पर प्रकाश डालते हुए सफल हुए थे। इससे स्पष्ट होता है कि पत्रकारिता गांधीजी के लिए अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक सशक्त हथियार का स्वरूप था, जिसकी बदौलत वे अफ्रीका में अपनी सत्याग्रह की लड़ाई मैं सफल होने के बाद भारत में भी सफल हुए। गांधीजी को इंडियन ओपीनियर्ना का विचार साकार होता दिखाई दिया। प्रारंभ में संपादक के रूप में कहीं भी गांधीजी का नाम नहीं जाता था, परंतु संपादकीय तथा अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ गांधी द्वारा प्रणीत होते थे। महत्वपूर्ण संपादकीय स्तंभ अवरसेल्व्स गांधीजी की संयत, सौम्य और सरल भाषा का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिंदी संस्करण में भी अंग्रेजी के पूर्ण विराम का प्रयोग गांधीजी की पत्रकारिता में नया प्रयोग था। भारत में प्रथमतः ऐसा प्रयोग सत्तर के दशक मैं डा. धर्मवीर भारती द्वारा संपादित धर्मयुग' ने किया। इंडियन ओपीनियन के प्रथम अंक में गांधीजी ने पत्र प्रकाशन का प्रयोजन स्पष्ट किया था | भारतीय लोगों पर हुए अत्याचार को प्रदशित करना तथा विचारों का प्रसार करना इसका पहला उद्देश्य है, जिससे लोगों में सत्यनिष्ठा जागृत हो सके।” यह जागरण ही गांधीजी का उद्देश्य था। मानवता के इस पुजारी की पवित्र पत्रकारिता और सत्यनिष्ठा लेखन के राहगिर की मदद कुछ अंग्रेज पत्रकार भी करने लगे जो मानवीयता के पोषक तथा उदारमना थे। उनमे प्रमुख थे अलबड्ड वेस्ट जो छापेखाने के कार्य की पूरी जिम्मेदारी रखते थे। मिस्टर हाबर्ड किचिन जो मनसुखलाल हीरालाल नाजर की मृत्यु के बाद कुछ दिनों तक इंडियन ओपीनियर्ना के संपादक के रूप में कार्य किया करते थे। द क्रिटिक' के सह-संपादक मिस्टर पोलक अपने विचार स्वतंत्र रूप से प्रकट करने की इच्छा से इंडियन ओपीनियर्ना से जुड़ गए थे। अपनी स्पष्ट, सत्य और बेबाक टिप्पणी की वजह से इंडियन ओपीनियर्न ने विज्ञापन लेना बंद कर दिया था, चूंकि विज्ञापन छापने में सत्य का पालन संभव नहीं था। गांधीजी को पत्र चलाने में धार्मिक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा | रस्किन की पुस्तक 'अन्ट्र दिस लास्ट का प्रभाव गांधीजी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और विचार को परिवर्तित कर चुका था | अक्टूबर 904 में मदनजीत भाई भारत वापस लौट आए थे। परिवर्तन का यही वह समय था जब गांधी गांव की ओर लौटकर कुछ करना चाहते थे, क्योंकि पत्रकारिता भी उनके लिए सेवा भाव ग्रहण कर चुकी थी। मनुष्यता के मर्म को पकड़ चुका था। परिणामस्वरूप डरबन शहर से 3 मील दूर तथा 'फीनिक्स रेलवे स्टेशर्न॑ से ढाई मील दूर सौं एकड़ की जमीन पर 'फीनिक्स आश्रम की स्थापना हुई। तत्पश्चात इंडियन ओपीनियर्न डरबन के बजाय फीनिक्स से प्रकाशित होने लगा. वहां से प्रकाशित इंडियन ओपीनियर्ना का पहला अंक 24 दिसंबर को प्रकाश में आया | इंडियन ओपीनियर्न गांधी के नेतृत्व में सामाजिक नैतिकता को मजबूत बनाने जनचेतना, सद्भाव तथा सामाजिक न्याय की दिशा में अग्रसारित सत्य के लिए उत्प्रेरित करने लगा। जीवन में नैतिक आचार-विचार का प्रवाह हो तथा समन्वित-व्यक्तित्व विकास का आयाम विकसित हो, इसके लिए 'इंडियन ओपीनियर्न सत्याग्रही तैयार करने लगा | क्योंकि यह अस्त्र गांधीजी के लिए सबसे प्रभावशाली था। इस तरह रचनात्मक सत्याग्रह की भूमिका में गांधीजी की पत्रकारिता के नाम से भी प्रसिद्ध हो गई थी। इंडियन ओपीनियर्ना उनके विचारों, व्यवहारों तथा कार्यान्वयन का माध्यम बन गया था, अतः उसमें कहीं-कोई दोषपूर्ण शब्द, भ्रमपूर्ण समाचार तथा आवेगपूर्ण विचार का प्रकाशन नहीं होता था। समाचास्संरचना तथा संकलन, विचार का अर्थपूर्ण विनिमय एवं शब्दों का संपूर्ण प्रयोग गांधीजी को सत्याग्रह का सिपाही बना दिया। अपने लक्ष्य प्राप्ति में वे अग्रसर होते गए। सत्याग्रह संघर्ष उन्हें सफल होता दिखाई देने लगा, फलस्वरूप उन्होंने 'फीनिक्स आश्रर्म' को ट्रस्ट का स्वरूप देकर पत्रकारिता को सत्याग्रह-संघर्ष का मार्ग चुन लिया। उन्हें लगने लगा कि 'इंडियन ओपीनियन की उनकी अवधारणा असफल नहीं होगी, उनकी पत्रकारिता परिवर्तन का पर्याय बनेगी। बाम्बे क्रॉनिकल बाम्बे क्रॉनिकल॑ अंग्रेजी साप्ताहिक-पत्र था, जो मुंबई से निकलता था। इसके व्यवस्थापक उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर थे और गांधी के परिचित थे। गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से मुंबई बंदरगाह पर 9 जनवरी, 898 को उतरे तो बॉम्बे क्रॉनिकल के प्रतिनिधि ने उनसे बातचीत की जो पत्र में छपी। गांधी ने लगभग 28 वर्ष बाद भारत आने और मातृभूमि के दर्शन करने पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की और जनता द्वारा प्रेमपूर्वक स्वागत करने पर धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह से सफलता प्राप्त की। इस समाचार-पत्र के संपादक बीजी हॉरनिमैन थे। मुंबई में समाचार-पत्र कानून का विरोध करने के लिए 24 जून को एक सार्वजनिक सभा हुई जिसकी अध्यक्षता हॉनिमैन ने की और गांधी ने गुजराती में भाषण दिया और कहा कि अपनी मातृभूमि के प्रति निष्ठा को प्रकट करने का सच्चा तरीका अपने देश की भाषा में बोलना है। इस प्रकार गांधी की मित्रता हॉर्निमिन के साथ बढती गई और गांधी ने रवींद्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई दविजेंद्र बाबू का ३ मार्च का पत्र उन्हें बॉम्बे क्रॉनिकल' में प्रकाशनार्थ भेजा जो गांधी की ही प्रशंसा में लिखा गया था। उन्होंने यह भी लिखा कि वे हॉर्निमिन को अच्छी तरह जानने लगे हैं, लेकिन हॉर्निमैन को सत्याग्रह के समर्थन के कारण 26 अप्रैल, 1989 को भारत छोड़ने का हुक्म मिला और उन्हें 30 अप्रैल, 1999 को इंग्लैण्ड भेज दिया गया। इसके साथ ही बॉम्बे क्रॉनिकर्ला बंद हो गया। गांधी ने मुंबई सरकार के सचिव जे. क्रिरर को लिखा, हॉर्निमैन के निर्वासित कर दिए जाने तथा समाचार-नियंत्रण आदेशों के परिणामस्वरूप बॉम्बे क्रॉनिकर्ल का प्रकाशन बंद हो जाने से जो विषम स्थिति उत्पन्न हो गई है, उसे परमश्रेष्ठ की सेवा में प्रस्तुत कर दूं। मेरी नम्र सम्मति में श्री हॉर्निमिन का निर्वासन नितांत अनुचित और उनके निर्वासन के बाद समाचार-नियंत्रण संबंधी आदेश बिल्कुल अनावश्यक है और जमानत को जब्त करके तो, मानो आग में घी डाल दिया गया है।' इस प्रकार गांधी ने अपनी तीव्र प्रतिक्रिया जाहिर की। बाद में गांधी ने हॉर्निमिर्ना शीर्षक से / जून, 99 को यंग इंडिया में टिप्पणी लिखकर सरकारी हुक्म को वापस लेने का आग्रह किया। हॉर्निमैन के देश से निष्कासन के बाद बॉम्बे क्रॉनिकल' केव्यवस्थापकों ने उसे चलाने का दायित्व गांधी को सौंपा | मिस्टर ब्रेलवी उसमें पहले से ही थे, इसलिए गांधी को कुछविशेष करना नहीं पड़ा, फिर भी गांधी के अनुसार यह जिम्मेदारी बहुत बड़ी हो गई और सरकार की कृपा से बॉम्बे क्रॉनिकर्ला फिर निकला तो गांधी यंग इंडिया और “नवजीवर्न' का दायित्व ग्रहण कर चुके थे। एक पृष्ठ का बुलेटिन : सत्याग्रह गांधीजी के समक्ष अनेक पत्रों के संपादन भार ग्रहण करने के प्रस्ताव आते रहे जिसमे से गांधी कुछ को स्वीकार तो कुछ को अस्वीकार कर दिए। / अप्रैल, 99 को मुंबई से सत्याग्रह नाम से एक पृष्ठ के बुलेटिन को निकालना प्रारंभ किया जो मुख्यतः अंग्रेजी में तथा अंशतः हिंदी में था। इसका उन्होंने ना तो कोई डिक्लरेशर्ना दिया और ना ही कोई चंदा' रखा। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह विश्वास दिला दिया था कि हम इस बात का कोई यकीन नहीं दिला सकते कि अखबार नियमित रूप से निकलता रहेगा | क्योंकि संपादक के किसी भी क्षण गिरफ्तार हो जाने की संभावना है। किंतु हम इस बात की कोशिश जरूर करेंगे कि एक संपादक की गिरफ्तारी के बाददूसरा संपादक इसकी जिम्मेदारी लेता जाए। इसे हम यथासंभव तब तक चलाते रहेंगे जब तक रौलेट एक्ट वापस नहीं ले लिया जाता | सत्याग्रही के प्रथम अंक में यह नोटिस छपा था | सत्याग्रही / अप्रैल से प्रति सोमवार प्रातः दस बजे अंग्रेजी और हिंदी में निकलना प्रारंभ हुआ। सन्‌ 99 में रोलेट एक्ट बना, जिसके विरोध में गांधी ने सत्याग्रही नामक यह पत्र निकाला | इसी बीच 8 जनवरी, 99 को रोलेट धेयक गजट ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुआ जिसके कारण 'होमरूल॑ की संभावना खत्म हो गई। यह राष्ट्रीय सम्मान पर आक्रमण था। गांधी देश का दौरा किया और रोलेट विधेयक के विरुद्ध 9 अप्रैल, 99 को 'सत्याग्रह दिवर्सा मनाने और उस दिन प्रार्थना एवं उपवास के साथ सविनय अवज्ञा की प्रतिज्ञा लेने का संदेश दिया, जिससे लोक-भावना को जागृत किया जा सके। गांधी को पंजाब से उपद्रव होने की आशंका के समाचार मिले तो वे 8 अप्रैल, 99 को मुंबई से पंजाब के लिए रवाना हुए, कितु रास्ते में ही कोशी स्टेशन पर उन्हें 9 अप्रैल, 99 को हिरासत में ले लिया गया। गांधी की गिरफ्तारी से समस्त भारत में हड़ताल हुई | अहमदाबाद में आगजनी, दंगा एवं हिंसात्मक घटनाएं हुई | यूरोपियों की हत्या तथा स्टेशन के माल गोदामों एवं मिलों को जलाया गया तो पुलिस ने गोली चलाई। देश में अनेक स्थानों पर ऐसी ही घटनाएं हुई | गांधी ने भारतीय प्रेस अधिनियम के विरोध में 'सत्याग्रहीं नाम से एक अपंजीकृत समाचार- पत्र निकाला। गांधी इसके संपादक थे औरलैबर्नम रोड, गामदेवी, मुंबई से हर सोमवार 0 बजे सुबह यह निकलता था। इसका प्रथम अंक / अप्रैल और दूसरा अंक 4 अप्रैल, 99 को निकला और उसके बाद सत्याग्रह स्थगित होने के कारण इसके अंक फिर नहीं निकले। 'सत्याग्रहीं का दूसरा अंक4 अप्रैल, 99 को निकला जिसमें 'आत्म-निरीक्षण्ण लेख के साथ 'समाचार॑ शीर्षक स्तम्भ में पांच समाचार दिए गए थे जो महात्मा गांधी की गिरफ्तारी, पंजाब में निर्वासन, मुंबई में आंदोलन, बिहार में सत्याग्रह तथा शाही परिषद से संबंधित थे। हरिजन हरि का अर्थ है ईश्वर या भगवान और जन का अर्थ है लोग महात्मा गाँधी ने हरिजन शब्द का प्रयोग हिन्दू समाज के उन समुदायों के लिये करना शुरु किया था जो सामाजिक रूप से बहिष्कृत माने जाते थे। इनके साथ ऊँची जाति के लोग छुआछूत का व्यवहार करते थे अर्थात उन्हें अछूत समझा जाता था। सामाजिक पुर्ननिर्माण और इनके साथ भेदभाव समाप्त करने के लिये गाँधी ने उन्हें ये नाम दिया था और बाद में उन्होंने हरिजर्न नाम से एक समाचार पत्र भी निकाला जिसमें इस सामाजिक बुराई के लिये वे नियमित लेख लिखते थे। लेकिन अब हरिजन शब्द को प्रतिबन्धित कर दिया गया है| हरिजन शब्द के स्थान पर अनुसूचित जाति का स्तेमाल करना अनिवार्य कर दिया गया है | हरिजन शब्द पाकिस्तान के दलितों के लिये भी प्रयुक्त होता है जिन्हें हरी कहा जाता है और जो मिट्टी के झोपड़े बनाने के लिये जाने जाते हैं। गांधीजी के प्रकाशन गांधीजी हरिजन नाम वाले तीन पत्रों का प्रकाशन करते थे। इन तीन पत्रों में महात्मा गांधी देश के सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते थे। - हरिजन बन्धु (गुजराती में) - हरिजन सेवक (हिन्दी में) - हरिजन (अंग्रेजी में) कालांतर में गांधीजी ने यंग इंडिया' , 'नवजीवर्ना और हिंदी 'नवजीवर्ना पत्रों के नाम 'हरिजर्ना रख दिए। गांधीजी के अछूतोद्धार तथा अस्पृश्यता विरोधी नीति का ही यह परिणाम था कि 'हरिजरन' का अंग्रेजी संस्करण हिंदी संस्करण की अपेक्षा काफी पहले ही प्रकाशित होना शुरू हो गया। अंग्रेजी में हरिजर्न का प्रकाशन फरवरी, 933 को घनश्यामदास बिड़ला के सहयोग से हुआ। 8 मई, 938 तक गांधीजी इन पत्रों का मार्गदर्शन जेल से करते रहे। इसके पश्चात जब वे वर्धा आ गए यहीं से 'हरिजर्ना के तीनों संस्करण प्रकाशित होते रहे। हिंदी 'हरिजर्नां के संपादन से अनेक व्यक्ति सम्बद्ध रहे। इनमें गांधीजी के कुछ प्रमुख सहयोगी थे- महादेव देसाई, काका साहब कालेलकर, वियोगी हरि, प्यारेलाल, काशीनाथ त्रिवेटी, हरिभाऊ उपाध्याय व रामनारायण चौथरी आदि। गांधीजी इन साप्ताहिकों के संदर्भ मेंलिखा, ये समाचार-पत्र नहीं है, विचार पत्र है और इनमें विचार एक ही व्यक्ति के जाहिर किए जाते हैं इसलिए जबतक मैं जिंदा हूँ महादेव या प्यारेलालजी इनमें अपनी मन की बात नहीं लिखेंगे।' इस प्रकार गांधीजी के इस कथन से स्पष्ट है कि 'हरिजरन के तीनों संस्करणों में प्रकाशित सामग्री गांधी के विचारों का ही प्रतिनिधित्व करते थे। गांधीजी ने 'हरिजन के माध्यम से हरिजनोद्धार तथा ग्रामीण जन के उत्थान के लिए विशेष प्रयास किए। 24 सितंबर 1938 के अंक में उन्होंने लिखा, हरिजन समाचार-पत्र नहीं अपितु यह आम जनता का विचार-पत्र है। इनका उद्देश्य जनता की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करना तथा सामाजिक क्रांति की दिशा में जनचेतना उत्पन्न करना है। हरिजन साप्ताहिक के आरंभ होने की पृष्ठभूमि में गांधी के जीवन की कुछ ऐसी राजनीतिक घटनाएं रही है, जिसके आधार पर हम यह समझ सकते हैं कि गांधी क्‍यों अस्पृश्यता निवारण के लिए 'हरिजर्ना का संपादन-प्रकाशन किया। गांधी यरवदा जेल में थे और सरकार की ओर से अस्पृश्यता-निवारण के कार्यों की अनुमति मिलने पर अनेक नए कार्यों का शुभारंभ हुआ। 'हरिजन सेवक संघ (पूर्व नाम: अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी संघ) की स्थापना 26 अक्टूबर, 932 को हुई | घनश्यामदास बिड़ला इसके अध्यक्ष और अमृतलाल ठक्‍कर सचिव नियुक्त हुए। सरकारी अनुमति के बाद गांधी के सुझाव पर हरिजन सेवक संर्घा के मुख्य पत्र के रूप में एक साप्ताहिक पत्र निकालने का निर्णय हुआ। घनश्यामदास बिडला ने 2 दिसंबर, 932 तक पत्र निकालने का निर्णय लेकर वियोग हरि को संपादक बनाया और गांधी से भी लेख प्राप्त कर लिया। गांधी ने 5 फरवरी, 933 को लिखे एक पत्र में इस साप्ताहिक-पत्र के बारे में लिखा, हरिजर्ना नामक एक अंग्रेजी साप्ताहिक आर्यभूषण प्रेस, पूना से प्रकाशित किया जाएगा।पटवर्धन इसके मुद्रक और प्रकाशक होंगे तथा आरवी शास्त्री इसके संपादक होंगे। कक इसकी नीति का निर्देशन मैं करूंगा। यह पत्र पूरी तरह हरिजनों के कार्य के निमित्त समर्पित होगा।" असल में बिडला हरिजन अंग्रेजी के हिंदी संस्करण हरिजन के संबंध में बात कर रहे थे। जो लगभग एक साथ तैयार हो रहे थे। गांधी हरिजन (अंग्रेजी) के पहले अंक की तैयारी में थे और उन्हें इनका संतोष था कि उन्हें एक बहुत अच्छा संपादक और उतना ही अच्छा एक दूसरा संपादक मिल गया है। 'हरिजरन का अंग्रेजी संस्करण 10 फरवरी 1933 को तथा हिंदी संस्करण हरिजन सेवक' 23 फरवरी 1933 को प्रकाशित हुआ। गांधी का विचार 'हरिजर्न को हिंदी में पहले निकालने और बाद में अंग्रेजी तथा अन्य देशी भाषाओं में निकालने का था, किंतु हिंदी संस्करण में विलम्ब होने पर 'हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष ने अंग्रेजी संस्करण को पहले निकालने की अनुमति दे दी। गांधी ने 'हरिजर्ना (अंग्रेजी) के पहले अंक में हरिजन क्यों तथा हिंदी के पहले अंक में इसी शीर्षक से संपादकीय टिप्पणी लिखकर इसके जन्म तथा रीति-नीति की जानकारी दी। 'हरिजन' (अंग्रेजी) में पाठकों से शीर्षक से भी एक लंबी टिप्पणी है जिसमें गांधी ने लिखा कि यह हिंदुओं का आंदोलन है | परंतु इसका विश्वव्यापी महत्व है। अतः सारी मानवजाति की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए इसे प्रकाशित किया गया है। यह पत्र एक महसूसकी जानेवाली कमी को पूरा करेगा, आत्म-निर्भर बनेगा तथा विज्ञापन के स्थान पर चंदे पर निर्भर करेगा। गांधी ने लगभग यहीं बातें देशी भाषाओं में हरिजर्ना (हरिजन अंग्रेजी, 25 फरवरी, 933) शीर्षक टिप्पणी में लिखी। इसके अंग्रेजी संस्करण के प्रथम अंक की 10 हजार प्रतियां छपी और पहले ही अंक में रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा सत्येद्रनाथ दत्त की बंगला कविता, 'मेहतर' का अंग्रेजी रूपांतर छपा। जिसका भावानुवाद 'शुद्धिकती' शीर्षक से संपूर्ण गांधी वांग्मर्या, खण्ड 53, पृष्ठ 556, 557 पर संकलित है इसकी कुछ अंतिम पंक्तियां इस तरह हैः- शिव ने कभी स्वयं विषपान कर बचाया था विश्व को विष-प्लावन से और तुम भी तो, बंधु, प्रतिदिन उसी देवोगय धैर्य से विश्व को मलिनता से बचाते हो। अरे बंधु/ अरे वीर! दे दो हमें भी साहस तुम अपना सा कि मनुष्य से लांधघना सब सहते हुए भी हम मनुष्य की करते रहें सेवा सदा। 'हरिजन (अंग्रेजी) के पहले अंक से लेकर अंतिम अंक (मार्च, 1956) तक अनेक उतार-चढाव देखे और तरह-तरह के परिवर्तन हुए। इसका पहला अंक आरवी शास्त्री के संपादकत्व में पूना से छपा और बाद में मद्रास से प्रकाशित हुआ। महादेव देसाई 3 अप्रैल, 985 से संपादक बने और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान सन्‌ 1940 से प्रकाशन स्थगित हो गया। इसका 8 जनवरी, 942 से नवजीवन प्रेस, अहमदाबाद से पुनः छपना शुरू हुआ कि 2 अगस्त, 1942 को इस पर प्रतिबंध लग गया। इसके बाद प्रतिबंध हटने पर 0 जनवरी, 1946 से पुनः निकला और प्यारेलाल संपादक बने जो 22 फरवरी, 1948 तक रहे। बाद में किशोरीलाल मशरूवाला और अंत में पी देसाई इसके संपादक रहे और मार्च, 1956 में यह बंद हो गया। 'हरिजन' (अंग्रेजी) की यह विशेषता थी कि जेल में रहते हुए भी गांधी ने इसे आरंभ किया था। संभवत: यह भारत का एकमात्र ऐसा पत्र था जिसको जेल में रहते हुए देश का कोई नेता निकाल रहा था। गांधी जिन राजनीतिक कारणों से जेल में बंद थे, ' |हरिजर्ना को वैसी ही राजनीति से हटकर इस पत्र को निकालने का वचन देना पड़ा और राजनीति के व्यापक संसार से सिकुड़ कर अस्पृश्यता-निवारण के सामाजिक सुधार तक सीमित हो जाना पड़ा। गांधी की इस व्यथापूर्ण स्थिति का पता उनके 8 मार्च, 1933 के उस पत्र से लगता है जो उन्होंने नारणदास गांधी को लिखा था। गांधी ने इस पत्र में लिखा, हरिजन सेवा के अलावा अन्य किसी विषय पर सोचने की मेरी क्षमता तेजी से घटती जा रही है। अन्य बातों के विषय में सोचना, बोलना अथवा कुछ करना मुझे तकलीफ देता है। मैं ऐसे कष्टदायी अनुभवों से गुजर रहा हूं। जिनकी मैं व्याख्या नहीं कर सकता" गांधी के ये कष्टदायी अनुभर्व क्या थे, ये वे ही जानें, कितु इतना स्पष्ट है कि वे इस समय स्वयं तथा हरिजन को राजनीति से दूर ले गए और इसकी अभिव्यक्ति वे बास्बार करते रहे | मानो वे अपने वचन के पालन करने का प्रमाण बार-बार दे रहे हों। गांधी ने कहा कि हरिजन- आंदोलन का कोई राजनीतिक हेतु नहीं है। राजनीति से तो हरिजर्न निश्चय ही दूर रहेगा। मेरी राजनीतिक आत्मा नहीं है तथा हरिजरन' में वर्तमान राजनीति की चर्चा के लिए कोई स्थान नहीं है। यह गांधी का नाकारात्मक पक्ष था, कितु ' हिरिजर्ना के संबंध में उनका यह सकारात्मक पक्ष था कि 'हरिजर्ना केवल अस्पृश्यता-निवारण एवं हरिजन-सेवा के लिए समर्पित था। गांधी ने 9 अक्टूबर, 934 को हरिजर्ना (अंग्रेजी) में लिखा, हरिजर्ना ऐसा साप्ताहिक है जो पूरी तरह से हरिजनों की सेवा के उद्देश्य को लेकर चलता है और उसमें किसी भी चीज के लिए गुंजाइश नहीं है। जिसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हरिजनों से संबंध नहीं है। इसके प्रकाशन के कुछ वर्षो बाद एक पाठक ने गांधी पर यह आरोप लगाया कि देशवासियों से आशाएं तो बडी-बड़ी रखते हैं लेकिन लिखते हैं अंग्रेजी हरिजर्न के लिए तथा उसके हिंदी एवं गुजराती संस्करणों ('हरिजन सेवक' और 'हरिजन बंधु' ) की ओर ध्यान नहीं देते और वे अंग्रेजी 'हरिजर्ना के अनुवाद के रूप में छपते हैं। गांधी ने इस आरोप को स्वीकार किया, परंतु सफाई में कहा कि लिखते समय मेरी नजरों के सामने अंग्रेजी भाषी लोग होते हैं। देश-विदेश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो भारतीय भाषाओं को नहीं समझते और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त हैं जिसके कारण मुझे उनके लिए लिखना पड़ता है, किन्तु आम लोगों को अपने साथ ले चलने के लिए मुझे उनसे उस भाषा में बोलना होगा जिसे मैं और वे दोनों समझते हैं। गांधी इस आवश्यकता को समझते थे, इसलिए 'हरिजर्ना (अंग्रेजी), 'हरिजन सेवक (हिन्दी) तथा हरिजन बन्धु' (गुजराती) का प्रकाशन किया। 'हरिजन सेवक' हिन्दी का पहला अंक 28 फरवरी, 1933 को निकला जो गांधी को 26 फरवरी, 1933 को मिला तो उन्हें वह संतोषप्रद नहीं लगा। इसलिए उन्होंने उसकी आलोचना में उसके संपादक वियोगी हरि को पत्र में लिखा, उसके पीछे अधिक परिश्रम की आवश्यकता है | अधिक अभ्यास चाहिए। नडियाद में संतराम की मंदिर खुलने की खबर है। संतराम का मंदिर नहीं खुला तो भी उसके खुलने का उल्लेख है। अखबारों में से कोई बात बगैर निश्चय नहीं लेनी चाहिए। ऐसी खबरें छापने से हमेशा प्रतिष्ठा कम होती है और धर्म की हानि पहुंचती है। गांधी की यह बारीक आलोचना पत्रकारिता की उनकी गहरी समझ के साथ छोटी-से-छोटी बात को गंभीरता से लेने तथा अखबार को उत्कृष्ट बनाने की विचार इष्टि का प्रमाण है। अमृतलाल वी. ठककर 'हरिजन सेवक्क' के संपादक थे, लेकिन उसकी रीति-नीति, साज-सज्जा, सामग्री आदि पर गांधी का ही नियंत्रण था और वे ठकक्‍र को समय-समय पर निर्देश देते थे कि उसे किस प्रकार निकाला जाए। ऐसा ही एक विस्तृत निर्देश गांधी के ठककर को लिखे 9 मार्च, 933 के पत्र से मिलता है जो उन्होंने हरिजन सेवक के चार अंकों को देखने के बाद दिए थे। गांधी ने पत्र में लिखा, मैं हरिजर्न के अंग्रेजी और हिन्दी संस्करण का विशेष स्थान दे रहा हूं- अंग्रेजी संस्करण को इसलिए कि उसमें अपने सभी विचारों को लिखित रूप देता रहता हूं। और वे आपके लिए भी उतने ही होते हैं जितने की हरिजन कार्य करने वाले अन्य कार्यकर्ताओं के लिए होते हैं और ऐसा में इसलिए करता हूं कि संघ (हरिजन सेवक संघ) की नीति निर्धारित करने और उसका मार्ग-दशैन करने का काम मेरा ही माना जाता है। हिंदी में हरिजन सेवक 23 फरवरी, 933 को निकल चुका था और गुजराती में 'हरिजन बंधु' अंग्रेजी 'हरिजन का गुजराती अनुवाद है और अंग्रेजी के साथ न छपने पर हमारे लिए शर्म की बात है। इसमें अंग्रेजी से गुजराती अनुवाद होने पर भी नवीनता नजर आएगी। इसका प्रकाशन छुआछूत को मिटाने के लिए है और मैं जीवित रहते हुए उसका अग्निःसंस्कार करने के लिए उत्सुक हूं। गुजराती के साथ इसके बंगला, मराठी आदि में भी इसके संस्करण छपे। बंगला संस्करण का प्रवेशांक दो हजार प्रतियों का छपा और दूसरे अंक की तीन हजार प्रतियां प्रकाशितकी गई | लेकिन सभी संस्करणों के लिए गांधी का आग्रह था कि वे स्वावलंबी हो तथा केवल हरिजन-सेवा के निमित्त ही उनका अस्तित्व हो जिससे देश के अन्य समाचार-पत्र भी इसमें प्रकाशित सामग्री को अपनी रुचि के अनुकूल प्रकाशित करते रहैं। गांधी के लिए महत्वपूर्ण यह था कि पाठक यह याद रखे कि 'हरिजन- का मूल उद्देश्य हरिजन- सेवा है और जब छुआछूत का भूत हिंदू समाज पर छाया रहेगा, तब तक स्वराज्य' आकाशपुष्प सा रहेगा। हरिजर्ना को सरकार की ओर से 8 अक्टूबर, 1940 वह नोटिस मिला जिसमें विनोबा के सत्याग्रह के समाचारों को दिल्‍ली के मुख्य प्रेस सलाहकार को बताए बिना प्रकाशित करने पर गंभीर हस्तक्षेप कहा | गांधी के / जनवरी, 942 के समाचार-पत्रों को दिए गए वक्तव्य से स्पष्ट है कि वे तीनों साप्ताहिकों को फिर से आरंभ करना चाहते थे और 8 जनवरी, 942 से उनका प्रकाशन प्रारंभ भी हो गया। गांधी ने 'हरिजर्न (अंग्रेजी) के इस अंक में लिखा कि तीनों साप्ताहिकों का उद्देश्य विशुद्ध सेवा' है और आर्थिक लाभ कमाना लक्ष्य नहीं है तथा इनकी पुरानी लोकप्रियता में कमी नहीं आएगी। वे अपने विचारों को पाठकों तक पहुंचाने तथा अहिंसा एवं रचनात्मक कार्यो से स्वराज्य को प्राप्त करके समाज के ढांचे को गदने का संदेश देते रहेंगे। मई, 1942 के आते-आते यह संभावना दिखाई देने लगी कि सरकार 'हरिजर्ना को फिर बंद कर सकती है। गांधी ने मई 1942 को हरिजर्ना (अंग्रेजी) में लिखा कि जैसे ही सरकार चाहेगी मैं उसका प्रकाशन बंद कर दूंगा, क्योंकि प्रतिबंध का विरोध करके उसे निकालने की मंशा नहीं है। हरिजर्ना समाचार-पत्र से भिन्‍न एक विचार-पत्र है और वह आज अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू (दो संस्करण), तमिल, तेलुगु (दो संस्करण), उड़िया, मराठी, गुजराती और कनन्‍नड़ (दो संस्करण) में प्रकाशित हो रहा है। बंगला में इसके प्रकाशन की तैयारी हो चुकी है | सिफ सरकारी इजाजत का इंतजार है। गांधी ने समाचार-पत्रों से राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर कार्य करने तथा सरकारी दबाव पर अखबार बंद करने का आह्वान भारत छोड़ों एवं करो या मरो' आंदोलन के समय किया तथा यह चेतावनी भी दी कि वे अंगरेजों तथा साम्प्रदायिक एकता एवं अहिंसा पर आघात न करें। गांधी के इन विचारों का सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे कांग्रेस कार्य-समिति के सदस्यों और मुंबई के करीब 50 कांग्रेसी नेताओं सहित 9 अगस्त, 1942 को सुबह गिरफ्तार कर लिए गए। सरकार ने 'हरिजर्ना की नई पुरानी सभी प्रतियां जब्त कर लीं और अहमदाबाद के डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट ने सभी साहित्य, नवजीवन प्रेस आदि नष्ट करने का पुलिस को आदेश दिया। गांधी 6 मई, 1944 को नजरबंदी से रिहा हुए और 4 मई, 944 को 5 दिन का मौन-व्रत रखा तथा 29 मई, 944 को दोपहर को 3 बजे मौन व्रत तोड़ दिया। यंग इण्डिया 'यंग इंडिया एक साप्ताहिक पत्रिका थी जिसे महात्मा गांधी प्रकाशित करते थे। यह पत्रिका अंग्रेजी में निकलती थी। गांधीजी ने अपने विचार एवं दर्शन को प्रसारित करने लिये आरम्भ किया था। इसके लेखों में अनेक सूक्तियाँ होती थीं जो लोगों के लिये महान प्रेरणा का कार्य करती थीं। मुंबई से बाम्बे क्रॉनिकर्ला तथा यंग इंडिया' दो अंग्रेजी समाचार-पत्र निकलते थे। हॉन्मिन बॉम्बे क्रॉनिकर्ला के संपादक थे तथा पत्रकारिता में उनका बड़ा सम्मान था। परंतु अंग्रेजी सरकार ने उन्हें सरकार विरोधी पत्रकारिता के दंडस्वरूप देश से 26 अप्रैल को निष्कासित कर दिया और समाचार-पत्र के व्यवस्थापकों ने बॉम्बे क्रॉनिकर्ला को बंद कर दिया। यंग डुंडिया' अंग्रेजी समाचार-पत्र साप्ताहिक के रूप में निकल रहा था, लेकिन बॉम्बे क्रॉनिकर्ला के बंद हो जाने पर इसके व्यवस्थापकों ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए- 1. इसके संपादन का भार गांधी को सांपा। 2. इसे साप्ताहिक से अर्द्ध साप्ताहिक बना दिया। असल में उमर सोवानी और शंकरलाल बैंकर ही बॉम्बे क्रॉनिकर्ला और यंग इंडिया दोनों समाचार-पत्रों के व्यवस्थापक थे और उन्होंने ही गांधी से (यंग इंडिया' का कार्य-भार संभालने तथा बॉम्बे क्रॉनिकर्ला के अभाव की पूर्ति के लिए यंग इंडिया को सप्ताह में दो बार निकालने का प्रस्ताव किया था। गांधी ने लिखा है कि उन्होंने अपने मित्रों के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, क्योंकि मुझे लोगों को सत्याग्रह का रहस्य समझाने का उत्साह था और पंजाब के सत्याग्रह आंदोलन के संबंध में सरकार की आलोचना कर सकता था। इस प्रकार गांधी को समाचार-पत्र की आवश्यकता थी और कुछ ऐसी परिस्थतियां बनीं कि समाचार-पत्र के व्यवस्थापक ही उनके पास समाचार-पत्र का भार संभालने का प्रस्ताव लेकर पहुच गए। गांधी तो ऐसे प्रस्ताव के लिए तैयार ही थे। गांधी यंग इंडिया' का कार्य-भार 2 अगस्त से पूर्व संभाल लिया था। इस प्रकार गांधी ने अंग्रेजी समाचार-पत्र यंग इंडिया' और गुजराती समाचार-पत्र 'नवजीवर्ना का कार्य-भार लगभग एक साथ सभाल लिया। गांधी के लिए इनकी व्यवस्था आसान नहीं थी, क्योंकि 'यंग इंडिया और बॉम्बे क्रॉनिकर्ला दोनों मुंबई से निकलते थे और 'नवजीवर्ना अहमदाबाद से। इस बीच बॉम्बे क्रॉनिकर्ल' फिर जी उठा था | इस कारण “यंग इंडिया को पुनः साप्ताहिक बना दिया गया। अनुपस्थिति में यंग इंडिया का संपादन करने का प्रस्ताव किया। गांधी ने पत्र में लिखा, क्या तुम कृपया “यंग इंडिया के संपादन का काम देखोगे? मतलब यह है कि संपादक के नाम में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए। मैं नहीं समझता की संपादक कि अस्थाई अनुपस्थिति में इस प्रकार परिवर्तन हों, तो च |राजगोपालाचार्य का नाम बतौर संपादक जाना चाहिए। गांधी की दृष्टि में राजगोपालाचार्य के बाद जयराम दास एवं काका साहब ऐसे दो व्यक्ति थे जिनकी संपादन के संबंध में सम्मति को महत्व देते थे। नवजीवन जलियावाला बाग में भारतवासी ब्रिटिश सरकार का पाश्चविक दमन चक्र देख चुके थे। हॉर्निमिन जैसे वरिष्ठ संपादकों को देश से निर्वासित कर दिया गया था। ब्रिटिश सरकार प्रेस को नियंत्रित करने के सभी हथकंडे अपना रही थी। ऐसे समय में कुछ समृद्ध गुजरातियों के सहयोग से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार-पत्र यंग इडिया' का संपादन भार गांधीजी ने ग्रहण करना स्वीकार कर लिया। शीघ्र ही इसका गुजराती संस्करण 'नवजीवर्न भी प्रकाशित होना आरंभ हो गया। प्रारंभ में इस मासिक पत्र को साप्ताहिक कर दिया गया। शंकरलाल बैंकर, महादेव देसाई तथा जेसी कुमारप्पा जैसे व्यक्तियों का भी सहयोग गांधीजी को उन दिनों मिलने लगा था। इसी सहयोग का परिणाम था कि गांधीजी ने हिंदी नवजीवर्न' भी प्रारंभ कर दिया। 'नवजीवर्न' की भाषा सरल और आडम्बरहीन थी। इसकी ग्राहक संख्या 2| हजार तक पहुंची थी। यहगुजराती समाज में नवीन चेतना फैलाने में सहायक हुआ। असहयोग आंदोलन का क्रांतिकारी प्रभाव इसमें स्पष्ट दिखाई पड़ता था। इसी वर्ष मुंबई से प्रकाशित यंग इंडिया 8 अक्टूबर को अहमदाबाद चला गया। इसका संपादन भी गांधीजी करने लगे। उन्होंने इस संबंध में 8 अक्टूबर, 99 के अपने लेख में लिखा है कि, एक अर्द्ध साप्ताहिक और साप्ताहिक दोनों पत्रों को निकालने का बोझ भारी था। फिर भी दोनों पत्रों में पर्याप्त सामग्री दी जाएगी। नवजीवर्ना के 2 हजार ग्राहक हैं, यह संख्या 20 हजार हो जाएगी, यदि हमें इतनी प्रतियां मुद्रित करने वाली कोई प्रेस मिल जाए। इस देश में भाषाई समाचार-पत्रों की मांग है। मझे खुशी है कि इस देश में किसान और मजदूर भी समाचास्पत्र पढ़ना चाहते हैं। अंग्रेजी पत्र को केवल कुछ पढ़े-लिखे लोग ही पढते हैं। नवजीवन में विज्ञापन नहीं छपते हैं। गांधी की गुजराती मातृभाषा थी, यद्यपि उनकी अधिकांश शिक्षा अंग्रेजी में हुई थी और गुजराती भाषा का अध्ययन भी उन्होंने अपनी उच्च कक्षाओं तक नहीं किया था, परतु दक्षिण अफ्रीका में वे गुजराती भाषा के लेखक ही बन गए थे। वे अपने पत्र, लेख आदि गुजराती में भी लिखते थे और गुजराती भाषा में अनुवाद का भी उन्हें पर्याप्त अभ्यास हो गया था। गांधीजी ने अंग्रेजी समाचार-पत्र यंग इंडिया' के संपादन का दायित्व स्वीकार कर लिया तो उनके मित्रों के साथ उनके अंतर्मन में यह प्रश्न उठा कि उन्हें जब एक अंग्रेजी अखबार की देख-रेख का भार अपने ऊपर ले लिया है | तब कया उनका यह कर्त्तव्य नहीं है कि वे एक गुजराती समाचार-पत्र का भी प्रकाशन करें? गांधी इससे परिचित थे तथा मानते थे कि सत्याग्रह की शिक्षा जनता को अंग्रेजी में नहीं दी जा सकती। अतः गांधी ने हिंदुस्तान की जनता की सेवा करने के उद्देश्य से अपने कल्याणकारी विचारों को जनता की भाषा गुजराती में देने का निश्चय कर लिया। गांधी ने 'नवजीवर्न'के जुलाई, 9|9 के अंक में इसी संबंध में लिखा, नवजीवन अने सर्त्य॑ के संस्थापकों ने उसकी देख-रेख का कार्य सौंपने और यह पत्र हर सप्ताह प्रकाशित हो सके ऐसी व्यवस्था करने का जिम्मा मैंने अपने ऊपर लिया है। भाई इन्दुलाल कन्हैयालाल याज्ञिक गुजरात के सार्वजनिक जीवन में बड़ा भाग ले रहे हैं | फिर भी उन्होंने 'नवजीवर्ना को अपना प्रमुख काम समझने और उसमें पूरी-पूरी मदद देने की प्रतिज्ञा ली है, ये संयोग आकस्मिक नहीं कहे जा सकते। यदि मैं इनका स्वागत न करूं तो यह लज्जा की बात होगी, और इसलिए हालांकि एक वर्ष पहले मेरी शारीरिक अवस्था जैसी थी वैसी अब नहीं है | तो भी मैंने नवजीवर्ना चलाने के काम का बीड़ा उठाया है।” गांधी ने गुजराती भाषा में 'नवजीवर्ना को मासिक के स्थान पर साप्ताहिक रूप में निकालने का जब निर्णय किया तब वे पूर्ण रूप से देष की भाषाओं में समाचार-पत्र के प्रकाशन के महत्व को समझते थे। अंग्रेजी का समाचार-पत्र उन्हें मुड्ढी-भर लोगों तक पहुंचा सकता था, परंतु भारत की भाषाओं से वे लगभग पूरे भारत देश में पहुंच सकते थे। नवजीवन' गांधी के संभालने से पूर्व गुजराती का मासिक पत्र था। जिसे गांधी ने साप्ताहिक पत्र बनाया और 'नवजीवर्न नाम से संस्था का गठन किया। गांधी ने 'नवजीवर्ना (गुजराती) का संपादन शुरू किया। उसी समय सरकार ने उससे पांच सौ की जमानत मांग की। गांधी को लगा कि उनके संपादक बनने से सरकार ने 'नवजीवर्ना की स्वतंत्रता छीनी है, परंतु सरकार ने शीघ्र ही अपना आदेश वापस ले लिया और नवजीवन को साप्ताहिक निकालने की अनुमति दे दी। गांधी ने अहमदाबाद के मजिस्ट्रेट के सामने 'नवजीवर्न, यंग इंडिया' तथा 'नवजीवन मुद्रणालय' के हलफनामें प्रस्तुत किए और मजिस्ट्रेट ने तीनों में से किसी से भी जमानत नहीं मांगी। गांधी की इस पर प्रसन्‍नता और संकल्प 'नवजीवन' जमानत से मुक्ति' शीर्षक से प्रकाशित उनकी टिप्पणी में मिलती है। गांधी ने टिप्पणी में लिखा, इस जमानत से मुक्त होने पर हमें कितनी प्रसन्‍नता हुई है | हम इसका वर्णन नहीं कर सकते। जमानत हमारी कलम पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं चला सकती और न उसके अभाव में हमारी निरंकुशता में रत्ती-भर वृद्धि ही होती है | बल्कि इससे हमारा उत्तरदायित्व सहज ही बढ़ जाता है।" गांधी के लिए यह हिंदुस्तान की सेवा करने का अवसर था तथा अपने अमूल्य व कल्याणकारी विचारों को जन-मानस तक पहुंचाने का सुयोग था, क्योंकि वे अनुभव कर चुके थे कि ऐसा करने का सबसे बड़ा, आधुनिक साधन समाचार-पत्र ही है। गांधी को यह अनुभव होने लगा तथा कुछ लोगों ने उन्हें बताया था कि सरकार 'नवजीवर्न' (गुजराती व हिंदी) तथा यंग इंडिया' को समाप्त करने की ताक में है। गांधी तो सद्भावना, शांति, सत्य एवं अहिंसा का ही प्रचार कर रहे थे। अतः उनका निश्रय था कि यदि सरकार जमानत मांगे तो तत्काल समाचार-पत्र बंद कर दिए जाएं, परंतु इसी समय उनके लेख गर्जन-तर्जना आदि के आधार पर सरकार के प्रति जनता में असंतोष भड़काने के आरोप में उन्हें अहमदाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया। और उन्हें दुर्बल स्वास्थ्य के आधार पर 5 फरवरी, 924 को रिहा किया गया। रिहा होने के बाद 6 अप्रैल, 924 को उन्होंने नवजीवर्ना के संपादक का कार्य-भार ग्रहण किया और इसी तिथि को प्रकाशित 'नवजीवर्ना (गुजराती) के अंक में गांधी ने नवजीवन के पाठकों से' शीर्षक टिप्पणी में अपने पाठकों से बड़ी भावुकता के साथ संबोधित किया। गांधी ने लिखा कि वे दो वर्ष के वियोग के बाद अपने पाठकों से फिर परिचय करने के लिए छटपटा रहे हैं। मुझे जेल में आपके स्नेह की याद आती थी तब मैं हर्ष से फूल जाता था। मैं सोचता कि जेल में किए गए चिंतन का परिणाम में कब तक आपके सामने रखूंगा। आज यह संभव हो रहा है तो मैं ईश्वर का अनुग्रह मानता हूं| उन्होंने इस पत्र को अपने सिद्धांतों और दृष्टिकोण का वाहक बनाकर नवजीवन के माध्यम से गांव-गांव में स्वतंत्रता एवं जन-जागरण की अलख जगाई | 982 में वे लंदन के गोलमेज अधिवेशन से लौटे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा पत्र प्रतिबंधित हो गया। नवजीवन ने देश की समस्याओं पर खुलकर लिखा और उचित राह दिखाया। हर वर्ग, उम्र व समुदाय के पाठकों द्वारा पुछे गए प्रश्नों के उत्तर नवजीवन मैं प्रकाशित किया जाता था। प्रश्नोत्तर स्तम्भ नवजीवन की विशेषता थी। इसमें गांधीजी खुलकर सभी प्रकार के प्रश्नों की चर्चा कर विचार करते थे। नेशनल हेराल्ड के प्रकाशकों ने पहली नवंबर 94/ को दैनिक नवजीवन का प्रकाशन शुरु किया। इससे पहले नवजीवन नाम से एक अखबार महात्मा गांधी निकालते थे, इसलिए दैनिक नवजीवन का प्रकाशन शुरु करने से पहले उनकी अनुमति ली गयी, जिसे गांधी जी ने सहर्ष प्रदान कर दिया। अंग्रेजी अखबार नेशनल हेरालड और उर्दू अखबार कौमी आवाज की तर्ज पर ही दैनिक नवजीवन भी महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों और पंडित जवाहर लाल नेहरू के आधुनिक भारत के नजरिए को आम लोगों तक पहुंचाने के मकसद से शुरु किया गया। अखबार का उद्देश्य स्वतंत्रता आंदोलन के गांधी जी के मूल्यों, आधुनिक, जनतांत्रिक, इंसाफ-पसंद, उदारवादी औरसामाजिक समरसता वाले राष्ट्र के निर्माण को गति देना था। दैनिक नवजीवन और उर्दू अखबार कौमी आवाज नेअपने प्रभावशाली तेवरों से एक ऐसा राष्ट्र बनाने की कोशिशों को आवाज दी जो विश्व शांति, वैज्ञानिक और तार्किक कसौटी पर खरा उतरने को कृतसंकल्प था। दैनिक नवजीवन का प्रकाशन दि एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी करती है और बदलते हालात और आधुनिक तकनीक के दौर में मजबूत डिजिटल उपस्थिति दर्ज कराने के लिए मल्टीमीडिया आउटलेट के साथ इसके डिजिटल और समाचार पत्र स्वरूप का फिर से प्रकाशन शुरु हुआ है। दि एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड ऐसी कंपनी है जो कंपनी से होने वाले किसी भी फायदे को अपने सदस्यों में नहीं बांटती है क्योंकि कंपनी का उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं बल्कि पत्रकारिता के उच्च मापदंडों को अपनाते हुए आम लोगों के मुद्दों को सामने लाना है। सर्वोदय 'सर्वोदर्या मासिक पत्र का प्रकाशन अगस्त 938 में सेवाग्राम, वर्धा से किया गया। इसके संपादक काका कालेलकर और दादा थधर्माधिकारी थे। किशोरीलाल भी अलिखित संपादक थे क्‍योंकि वे भी प्राय: प्रत्येक अंक में लिखते थे। इसका उद्देश्य सत्याग्रह-शास्त्र की तात्विक चर्चा करना और उसके शुद्धतम रूप का प्रचार करना था। जब चार वर्ष तक निकलने के बाद भी यह मासिक स्वावलंबी न हो सका तब गांधीजी को कुछ लोगों ने इसे बंद कर देने की राय दे डाली। परंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो चाहते थे कि इसे घाटे के बाद भी चालू रखा जाए। अतः गाधीजी ने 'हरिजन सेवक के 2 जुलाई 942 के अंक में लिखा कि मध्य मार्ग तो यह है कि ग्राहकों से ही पूछा जाए। ग्राहक इस घाटे की बात स्पष्ट रूप से नहीं जानते हैं। अगर वे सर्वोदिय" का निकालना आवश्यक समझते हैं तो प्रत्येक ग्राहक कम-से-कम एक ग्राहक बना दे तभी घाटा मिट सकता है। इस समय सर्वोदय के 900 ग्राहक थे। 'सर्वोदर्य में अनेक विद्वान जैसे हरिभाऊ उपाध्याय, वियोगी हरि, रामनारायण चौधरी, काशीनाथ त्रिवेदी आदि मौलिक लेख लिखा करते थे। 'सर्वोदर्या में हरिजर्ना की नीति का शास्त्रीय विवेचन किया जाता था। परंतु यह विवेचन स्वतंत्र होता था और हरिजन की नीति से इसका कोई सीथा नाता भी नहीं था। इसलिए गांधीजी ने लिखा कि- हरिजन यदि खतरे में पड़ जाएं तो भी 'सर्वोदिय बच जाए और उसके माध्यम से लोगों को कुछ तो खुराक मिला करे, ऐसा भी लोभ 'सर्वोदय' निकालने में रहता है। गांधी मानते थे कि पत्रकारिता के दो रूप हैं - एक व्यवसायी पत्रकारिता तथा दूसरा लोकसेवी पत्रकारिता। पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित होती है और लोकसेवा के लक्ष्य से वहदूर हो जाती है। पत्रकारिता को यदि धनार्जन का एक व्यवसाय बनाएं तो हमें जनता से यह आशा भी छोडनी होगी कि वह समाचार-पत्र को देशभक्ति, परोपकार या लोक कल्याण का काम करने वाला माने और वह जनता की शुभकामना, सदाश्याता और सहायता पर पूर्ण रूप से निर्भर रहे। इसलिए गांधी की कसौटी लोक की इच्छा और आवश्यकता थी। यदि लोक अर्थात्‌ कौर्मा को समाचार-पत्र की जरूरत न हो और यह सिद्ध हो जाए तो सभी समाचार-पत्र को बंद कर देना चाहिए। गांधी का मार्ग लोक सेवा और लोक-जागृति का था। पत्रकारिता उनके लिए भौतिक एवं अध्यात्मिक कर्म था। यह उनकी मौलिकता थी और यही प्रभाव-शकति भी और यही पत्रकारिता को भारतीय रूप प्रदान करती है। गांधी ने एक स्थान पर लिखा कि, मेरा लेखन मेरे शरीर के साथ दफना दिया जाए। मैने जो कहा अथवा लिखा वह तो नहीं बल्कि मैंने जो किया है | वही बना रहेगा। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में इंडियन ओपीनियर्ना निकाला अर्थात्‌ भारतीय इष्टिकोण और विचार पक्ष को केंद्र में रखा और भारत में भी यंग इंडिया' (युवा भारत), नवजीवर्ना (भारत का नवजीवन) तथा 'हरिजर्न (ईश्वर के प्रिय भारत के नागरिक) में भारत ही केंद्र में था। इस एकरूपता का कारण यही था कि दोनों देशों मे हिंदुस्तानी ही गुलाम थे और वे ही अंगरेजों के दमन, अन्याय, कुशासन तथा सात्राज्यवादी महत्वाकांक्षा और क्रूरता के शिकार थे।अतः समाचार-पत्र, देश-स्थान आदि बदलने पर भी गांधी का मुक्ति संघर्ष तो एक ही हिंदुस्तानी समाज के लिए था। गांधी तो दोनों स्थानों पर एक ही थे, उनका दर्शन भी एक ही था, अंतर केवल इतना था कि दक्षिण अफ्रीका में अन्यायी कानून, भेदभाव से मुक्ति एवं स्वाभिमान प्राप्ति की लड़ाई थी, भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समूल नष्ट करके भारत में स्वराज्य की स्थापना करना था। स्वराज्य प्राप्ति के लिए गांधी ने अपनी पत्रकारिता का उपयोग लोक सेवा, लोक शिक्षा तथा लोक जागरण के लिए करके उसे राष्ट्रीयता के उच्चतम शिखर तक पहुंचा दिया। इसी राष्ट्रीयता के कारण गांधी ने देशी भाषाओं काउपयोग अपनी पत्रकारिता के लिए किया और देश की अंग्रेजी न जानने वाली बहुसंख्यक जनता को निद्रा से जगाया, |उन्हें सत्याग्रह-अहिंसा-स्वराज्य का दर्शन समझाया और उनमें देश प्रेम उत्पन्न करके अपने स्वाधीनता एवं सांस्कृतिक संघर्ष का अंग बनाया। गांधी का ध्येय स्वराज्य था, जिसमें स्वशासन, स्व-संस्कृति, एवं स्व-भाषा आदि के साथ अभिव्यक्ति एवं प्रकाशन की स्वतंत्रता थी और पत्रकारिता इस राष्ट्रीय उद्देश्य की प्राप्ति का साधन थी। वस्तुतः गांधी इन पत्रों के माध्यम से एक सजग पत्रकार के रूप में भारतीय जनमानस पर छा गए। इन पत्रों के दवारा उन्होंने अपने विचारों को जन समाज तक पहुंचाने का कार्य किया। यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व ने जनता पर जादू-सा कर दिया, उनकी एक आवाज पर देश के कर्मठ और स्वतंत्रता प्रेमी लोग मर मिटने को तैयार हो गए। सामाजिक कुरीतियों और दूषित परम्पराओं के खिलाफ जहां गांधीजी ने पत्रकारिता के माध्यम से आवाज उठाई वहीं भारत माता की परतंत्रता की बेडियों को तोड़ने के लिए देश में चल रहे आंदोलन को नेतृत्व दिया तथा सत्याग्रह, असहयोग और अनेक आंदोलन को सक्रियता भी प्रदान की। जनचेतना की शुरुवात बीसवीं सदी की शुरुआत में, एक दौर था जब गांधी जी को भारत में कोई नहीं जानता था। वो उस वक्त अफ्रीका में वकालत करते थे। ये वही दौर था जब अफ़ीका में भी अश्वेत लोगों के खिलाफ ज़ुल्म की कहानियां पूरी दुनिया सुन रही थी। गांधी जी ने ऐसे में अपनी वकालत के ज़रिये उन्हे उनका हक़ दिलाने की कोशिश की। |24 साल पहले हुई थी वो घटना, जिसने बैरिस्टर गांधी को महात्मा बना दिया अगले ही दिन गांधी जी ने डरबन के एक स्थानीय संपादक को खत लिखकर इस मामले पर अपना विरोध जताया। विरोध के तौर पर लिखी उनकी चिट्टी को अख़बार में जस का तस प्रकाशित किया गया। ये पहली बार था जब गांधी जी का कोई लेख अख़बार में प्रकाशित हुआ था। इस में उन्होंने लिखा कि किसी भी देश में ऐसा कानून नहीं हो सकता जो किसी की व्यक्तिगत या सांस्कृतिक आज़ादी के खिलाफ हो। इस लेख के बाद पगड़ी पर रोक लगाने वाले कोर्ट के कार्यवाहक को कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी और इसी विरोध की अभिव्यक्ति से शुरु हुआ था गांधी जी की पत्रकारिता का सफ़र। साल 908 जब गांधी ने अफ्रीका में ही इन्डियन ओपिनियर्ना का प्रकाशन शुरु करवाया। इस अख़बार ने उस दौर के रंगभेद समेत ऐसे कई मुद्दों को प्रकाशित किया जिनपर दूसरे अख़बार बात करने से घबरा रहे थे। गांधी जी के सत्ता से बेख़ौफ अंदाज़ का पता इससे भी चलता है कि उस दौर में उन्होनें इस अख़बार को पांच भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किया, संपादक रहते हुए उन्होने कभी भी अख़बार के लिए कोई विज्ञापन नहीं लिया। गांधी के लिए पत्रकार होना किसी चुनौती से कम नहीं था। सत्ता के विरोध में आवाज़ बुलंद करने पर साल 906 में अफ्रीकी प्रशासन ने उन्हें जोहान्सवर्ग की जेल में बंद कर दिया। लेकिन जेल में रहने के बावजूद भी गांधी जी ने सच के साथ समझौता नहीं किया, बल्कि जेल से ही अख़बार का संपादन का काम किया। यहीं से शुरु हुआ गांधी जी का पत्रकारिता का सफ़र दूर तक चला। भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी उन्होने अख़बार का इस्तेमाल किया। उन्होने 'हरिजरन नाम से तीन समाचार पत्रों का संपादन किया जिसने भारतीयों को अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुट होने में मदद की। मिशनरी पत्रकार थे महात्मा गांधी भारत में पत्रकारिता का प्रादुर्भाव पुनर्जागरण के समय में हुआ था। यही वह समय था जब भारत की राष्ट्रीयचेतना जागृत हो रही थी। राष्ट्र की चेतना को जागृत करने वाले सभी प्रमुख लोगों ने इस कार्य के लिए पत्रकारिता को अपना सशक्त माध्यम बनाया। पत्रकारिता उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध जनमत निर्माण के माध्यम के रूप में सामने आई थी। इस माध्यम का उपयोग स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नायक महात्मा गांधी ने भी किया था। 2 अक्टूबर, 9869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन को पत्रकारिता के माध्यम से मजबूती प्रदान की। महात्मा गांधी ने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत सन 888 में लंदन से ही कर दी थी। गांधी जी ने पत्रकारिता का उपयोग दो प्रकार से किया- इंग्लैण्ड में प्रवास काल (जुलाई, 888-जून,।89]) तथा दक्षिण अफ्रीका में देशी-विदेशी समाचारपत्रों के माध्यम से गांधी ने अपने कार्यों एवं विचारों को पाठकों तक पहुंचाने का कार्य किया और उन्हें वहां के समाचारपत्रों में विशेष स्थान मिलता गया। गांधी जी ने पत्रकारिता के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक में भारत और भारतीयों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। सन्‌ 868 से 896 तक का समय गांधी जी के पत्रकारिता के संपर्क में आने का समय कहा जा सकता है। महात्मा गांधी जब सन्‌ 888 में लंदन पहुंचे तब तक वे समाचारपत्रों की दुनिया से अधिक परिचित नहीं थे, दलपतराम शुक्ल के सुझाव पर उन्होंने प्रतिदिन एक घंटे का समय विभिन्‍न अखबारों को पढ़ने में लगाना शुरू किया। तब उनके मन में यह विचार आया भी न होगा कि वे एक दिन समाचार पत्रों की दुनिया के महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्थापित होंगे। गांधी जी अपनी माता के प्रभाव के कारण अन्नाहारी थे, वे इंग्लैण्ड में अन्नाहार आंदोलन से भी जुड़े रहे थे। अन्नाहार को लेकर गांधी जी ने ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार 'वेजिटेरियर्न' में लेख लिखना शुरू किया। ब्रिटेन के बाद दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर महात्मा गांधी ने 'इंडियन ओपीनियन समाचार पत्र का संपादन किया। उन्होंने इंडियन ओपीनियन के माध्यम से दक्षिण अफ्रीकी और भारतीय लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति जागृत करने का कार्य किया। इंडियन ओपीनियर्न का प्रथम अंक 4 जून, 903 को निकला, जिसमें महात्मा गांधी ने पत्रकारिता के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए लिखा- * पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना है। * पत्रकारिता का दूसरा उद्देश्य लोगों में जरूरी भावनाओं को जागृत करना है। * पत्रकारिता का तीसरा उद्देश्य निर्भीक तरीके से गड़बड़ियों को उजागर करना है। महात्मा गांधी अल्पायु में ही समाचार पत्रों के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। समाचार पत्रों में लेखन के माध्यम से महात्मा गांधी समूचे दक्षिण अफ्रीका में लोकप्रिय हो गए थे। गांधी जी ने पत्रकारिता को अपने संघर्ष का सशक्त माध्यम बना लिया और पत्रकारिता जगत के आवश्यक अंग बन गए। महात्मा गांधी ने भारत लौटकर भी पत्रकारिता के अपने सफर को जारी रखा। भारत लौटने पर उन्होंने बॉम्बे क्रॉनिकर्ल' और सत्याग्रही समाचार पत्र निकाले, किंतु वे 0-5 दिनों तक ही इनका दायित्व संभाल सके। इन समाचार पत्रों के बंद होने के बाद महात्मा गांधी ने 'नवजीवर्न' और “यंग इंडिया दो समाचार पत्र सितंबर 99 में निकाले, जिनका प्रकाशन सन्‌ 1932 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद बंद हो गए। इसके बाद भी महात्मा गांधी के पत्रकार जीवन की यात्रा जारी रही। जेल से छूटने के पश्चात्‌ गांधी जी ने 'हरिजर्न नामक साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला, जिसका प्रकाशन | फरवरी, 1933 से प्रारंभ होकर महात्मा गांधी के जीवन-पर्यत तक जारी रहा। गांधी जी के अपने समाचार पत्रों का प्रकाशन कई बार बंद करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीतियों के आगे न कभी झुके, न थके। गिरफ्तारी और सेंसरशिप लगने से उनके पत्र बंद अवश्य हुए, लेकिन मौका मिलते ही गांधी जी पुनः पत्रों के प्रकाशन के कार्य में जुट जाते थे। गांधी जी ने कई दशकों तक पत्रकार के रूप में कार्य किया, कई समाचारपत्रों का संपादन किया। महात्मा गांधी ने उस समय में जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी, उन्होंने पत्रकारिता की नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। महात्मा गांधी ने जिन समाचार पत्रों का प्रकाशन अथवा संपादन किया वे पत्र अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रों में माने गए। गांधी जी के पत्रकारिता की प्रशंसा करते हुए चेलापतिराव ने कहा कि- “गांधी जी शायद सबसे महान पत्रकार हुए हैं और उन्होंने जिन साप्ताहिकों को चलाया और संपादित किया वे संभवतः संसार के सर्वश्रेष्ठ साप्ताहिक हैं।" महात्मा गांधी समाचार पत्रों को किसी भी आंदोलन अथवा सत्याग्रह का आधार मानते थे, उन्होंने कहा था-"मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलायी जा सकती। अगर मैंने अखबार निकालकर दक्षिण अफ्रीका में बसी हुई भारतीय जमात को उसकी स्थिति न समझाई होती और सारी दुनिया में फैले हुए भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में कया कुछ हो रहा है, इसे इंडियन ओपीनियन के सहारे अवगत न कराया होता तो मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता था। इस तरह मुझे भरोसा हो गया है कि अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए अखबार एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन है. महात्मा गांधी ने पत्रकारिता के माध्यम से सूचना ही नहीं बल्कि जनशिक्षण और जनमत निर्माण का भी कार्य किया। गांधी जी की पत्रकारिता पराधीन भारत की आवाज थी, उन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाया और अंग्रेजों के विरूद्ध जनजागरण का कार्य किया। आज की पत्रकारिता आज से प्रायः 08 साल पहले महात्मा ने दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग से अपने पहले अखबार इंडियन ओपिनियर्ना का संपादन आरंभ किया। प्रवेशांक में ही उन्होंने बताया कि इसका मकसद "भारतीय समुदाय की इच्छाओं को अभिव्यक्त करना और उनके हितों के लिए काम करना है।" तब गोरे शासकों के दिल में वहाँ काम करने वाले अथवा व्यापार करने वाले भारतीयों के प्रति जो हिकारत का भाव था और जैसी दयनीय उनकी बस्तियों की हालत थी, उसे शासन तंत्र के सामने लाना, उनसे न्यायपूर्ण व्यवहार की माँग करना, इस साप्ताहिक अखबार का घोषित लक्ष्य था। अखबार का दूसरा बड़ा मकसद दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले अलग-अलग जमातों, अलग-अलग काम-धंधा करने वाले लोगों को भारतीयता की एक पहचान देना और इस तरह उन्हें एक सूत्र में बॉधना था। इसकी घोषणा करते हुए महात्मा का यह अखबार कहता है कि "हम तमिल या कलकत्ता वाले नहीं हैं, हम मुसलमान या हिंदू नहीं हैं, हम ब्राह्मण और बनिया भी नहीं हैं बल्कि हम केवल और केवल ब्रिटिश भारतीय हैं। हमें साथ-साथ ड्ूबना और साथ-साथ तैरना है।' इस पुंजीभूत और सहधर्मी पहचान के लिए ही उन्होंने अखबार का नाम रखा - इंडियन ओपिनियर्ना और एक साथ चार भाषाओं में इसका प्रकाशन शुरू हुआ। वे भाषाएं थीं - अंग्रेजी, हिंदी, तमिल और गुजराती। अपनी आत्मकथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में गांधी पत्रकारिता के उद्देश्यों को इन शब्दों में बताते हैं। वहकहते हैं कि “समाचारपत्र का पहला मकसद लोगों की संवेदना को समझना और उसे अभिव्यक्त करना, दूसरा उनके भीतर जरूरी भावनाएँ जगाना और तीसरा मकसद सार्वजनिक दोषों का निडर होकर पर्दाफाश करना होता है।" ये तीनों वही बातें हैं जिन्हें गांधी ने अपने पहले अखबार - इंडियन ओपिनियर्न के प्रवेशांक में रेखांकित किया था। 'इंडियन ओपिनियरन' के जरिए महात्मा का लक्ष्य जहाँ अंग्रेज शासकों को अश्वेत आबादी, खासकर भारतीय समुदाय की जरूरतों और इच्छाओं से अवगत कराना था, वहीं दूसरी ओर उनका ध्येय भारतीय समुदाय के लोगों को उनकी कमियाँ और कमजोरियाँ बताना थी था। इस साप्ताहिक के प्रवेशांक में वह यह भी रेखांकित करते हैं कि "हम यह मानने को कतई तैयार नहीं कि यहाँ रहने वाले भारतीय लोगों की जो कमियाँ गिनाई जाती हैं, हममें वे कमियाँ नहीं हैं। जब कभी भी हमें उनकी गलती नजर आएगी हम बेहिचक उन्हें बताएँगे ओर उन्हें दूर करने के तरीके भी सुझाएग कहना न होगा कि गांधी अपने अखबारों और लेखन के जरिए जीवनपर्यत यह काम करते रहे। आज की पत्रकारिता और पत्रकार बिरादरी का बहुलांश जब अपनी कमियों-कमजोरियों की अनदेखी कर दूसरों के छिद्रान्वेषण में तललीन दिखाई देता है, तब गांधी की अपने भीतर झाँकने की, आत्म-मूल्यांकन की प्रवृत्ति एक बेशकीमती पत्रकारी मूल्य बनकर उभरती है। वस्तुतः गांधी गुजरी सदी के एक बेहद प्रभावशाली पत्रकार थे। एक ऐसे पत्रकार जिनके निर्भीक, सीधे और सरल शब्द करोड़ों लोगों के दिलों-दिमाग में सरलता से पैठ बना लेते थे और अपने विचारों से एकमेक कर लेते थे। उनकी पत्रकारिता उनकी आत्मा की आवार्जा थी। उन्होंने एक बार कहा कि हफ्ते-दर-हफ्ते अपने स्तंभों में मैं अपनी आत्मा उड़ेलता जाता था ताकि अपने सिद्धांतों और सत्याग्रह के अमल के बारे में बता पाऊँ। 2 जुलाई, 925 को यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा - "अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के लिए विषय और शब्दों को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूँ, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता। मेरे लिए यह प्रशिक्षण है। इससे मैं खुद अपने भीतर झाँकने तथा अपनी कमजोरियों को ढूँढ़ने में समर्थ हो पाता हूँ अपने विचारों की प्रखरता और दृढ़ता तथा भाषा की सरलता और साफगोई की बदौलत गांधी एक सफल और पूर्णकालिक पत्रकार हो सकते थे, लेकिन हम जानते हैं कि वह केवल पत्रकार नहीं थे। पत्रकारिता उनके सामाजिक और राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपनाए गए अनेक उपकरणों में से एक जरूरी उपकरण था। वह कहते हैं कि "पत्रकारिता में मेरा क्षेत्र मात्र यहाँ तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है।' इसके बावजूद एक सहायक विधा अथवा उपकरण के तौर पर ही सही, चालीस सालों तक गांधी ने पत्रकारिता की ओर इस अवधि में छह समाचारपत्रों का संपादन किया। इनमें से इंडियन ओपिनियर्न॑, जैसा मैंने आरंभ में उल्लेख किया था, चार भाषाओं में प्रकाशित होता था। 'नवजीवर्ना पहले मासिक के रूप में गुजराती में प्रकाशित होता था, बाद में गांधीजी ने इसे साप्ताहिक कर दिया और हिंदी में प्रकाशित करने लगे। 'इंडियन ओपिनियर्ना से लेकर गांधी की पत्रकारिता के आखिर तक की यात्रा पर अगर हम सरसरी निगाह भी डालें तो कुछ बातें एकदम साफ दिखाई पड़ती हैं - !. वह जनभाषा की, लोगों की समझ में आने वाली और इस्तेमाल की जाने वाली भाषा की, ताकत को पहचानते थे। साथ ही वह दक्षिण अफ्रीका में समस्त भारतीय समुदाय को एकजुट करना चाहते थे इसलिए उन्होंने इंडियन ओपिनियर्ना का प्रकाशन चार भाषाओं में किया। 2. अपनी बात वह अंग्रेज हुक्मरानों तक तथा बाहरी दुनिया तक पहुँचा सकें इसलिए हर दौर में अंग्रेजी में एकअखबार अथवा संस्करण निकालते रहे। 3, हिंदी को वह दक्षिण अफ्रीका में भी महत्वपूर्ण मानते रहे इसलिए इंडियन ओपिनियर्न' का प्रकाशन हिंदी में भी किया। लेकिन भारत लौटने और भारत भ्रमण के बाद उनके मन-मस्तिष्क में यह बात पुख्ता हो गई कि कोई अखिल भारतीय एक भाषा हो सकती है, तो वह हिंदी ही हो सकती है। इसलिए अपनी मातृभाषा में निकलने वाले नवजीवर्न को उन्होंने गुजराती के बदले हिंदी में निकालना आरंभ कर दिया। यही नहीं, उसकी बारंबारता भी चौगुनी, यानी महीने में एक के बजाय चार अंक, कर दी। गांधी वेतनभोगी पत्रकार नहीं थे। वह अपने अखबारों में कोई विज्ञापन नहीं प्रकाशित करते थे। अपने पाठकों से वह चंदे और दान की माँग जरूर करते थे, लेकिन शासन तंत्र से नहीं। इसलिए उनकी निष्ठा अपने पाठकों के प्रति थी, उस मकसद के प्रति थी जिसकी प्राप्ति का उपकरण उन्होंने पत्रकारिता को बनाया था। वह अंग्रेज लोगों के प्रति द्वेषभाव नहीं रखते थे, इस तथ्य को उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है। फिर भी उनकी निष्ठा भारतीय समाज के प्रति थी। इसीलिए मात्र कुछ हजार की प्रसार संख्या वाले उनके अखबारों की प्रतीक्षा देश भर को और दुनिया भर को रहती थी। अंक आते ही समाचार एजेंसियाँ उनके लेखों को उसी दिन या अगले दिन एक साथ सभी समाचार पत्रों को प्रेषित कर देती थीं। कनन्‍्हैयालाल माणिकलाल मुंशी अपनी पुस्तक 'गुजरात एंड इट्स लिटरेचर' में नवजीवर्ना के प्रभाव के बारे में बताते हैं कि "संसार में किसी अन्य समाचार पत्र को इस प्रकार की लोकप्रियता और अपने क्षेत्र में इस प्रकार का महत्व नहीं प्राप्त हुआ होगा जितना इस छोटे, सरल समाचार पत्र को प्राप्त हुआ। हालाँकि इस अखबार ने न तो कभी भड़काऊ खबर छापी और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित किया। अनेकानेक लोगों ने उपन्यास और पुराण आदि पढ़ना छोड़ इस अखबार को पढ़ना शुरू कर दिया था। इस साप्ताहिक की एक प्रति दूस्दराज में स्थित गाँव के लिए इकलौती पत्रिका और पूरा जीवनदर्शन होती थी. गांधी बहुभाषी और बहुलतावादी भारतीय समाज की प्रकृति और उसकी संरचना को जानते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी पत्रकारिता का इस्तेमाल इस विविधता को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए किया। 942 में एक प्रश्न का जवाब देते हुए गांधी ने कहा, "मैं चाहता हूँ कि भारतीय प्रेस (या पत्रकार) वे काम न करें जो उनकी अंतरात्मा की आवाज के विरुद्ध हों। राष्ट्रीय संस्थाओं और नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हित को कभी नुकसान नहीं होगा। लेकिन सांप्रदायिक उन्‍्माद भड़काने के खबरों के प्रति हमें सावधान रहना है। यदि भावी आंदोलन से लोगों के साथ सांप्रदायिक सद्भावना तथा शांति स्थापित नहीं हो पाती है, तो इस आंदोलन का कोई अर्थ नहीं होगा।" भारतीय मीडिया आज भी वही परम्पराओं को निभाते हुए सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ विपक्ष की भूमिका निभा रहा है। महात्मा गांधी की लगभग 50 वर्षों की पत्रकारिता जो उन्होंने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडियन, नवजीवन और हरिजन के माध्यम से की, वो भी राजनैतिक बगाबत और सामाजिक बुराइयों पर निरंतर हमला था। गांधी जी ने पत्रकारिता को एक हथियार के रूप में प्रयोग किया और अपने सत्याग्रह के आंदोलन को धार देने के लिए उपयोग किया। गांधी जी ने लिखा था "मैंने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया है उन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए जिनको में जरूरी समझता हूँ और जो सत्याग्रह, अहिंसा व्‌ सत्य के अन्वेषण पर टिकी हैं। महात्मा गांधी के साप्ताहिक पत्रों में /5 प्रतिशत कंटेंट उनका खुद का था। उनके सारे पत्र उनकी सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा को प्रतिबिंबित करते हैं। गांधी जी की लेखनी दिल को छू लेने वाली थी | वो पत्रकारिता में इतने गहरे डूबे थे की अगर वो राजनीती में न होते तो जरूर किसी बड़े अख़बार के संपादक होते। गांधी जी के विचारों से देश का कोई समाचार पत्र अछूता नहीं रहा। उनकी लेखन शैली पर वकालत का पूरा असर था जिस तरह वो बहस करते और तथ्यों को प्रस्तुत करते थे। गांधी जी शब्द की ताकत को बखूबी पहचानते थे इसलिए बड़ी सावधानी से लिखते थे। अपनी लेखनी से वो लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित करते थे | सम्पूर्ण जीवनकाल को सत्य की खोज का नाम देने वाले महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा वाले नैतिक मूल्यों परतो ना जाने कितनी सकारात्मक और नकारात्मक बातें की जा चुकी हैं और ना जाने कितना कुछ लिखा जा चुका है। मगर गांधी के जीवनकाल का एक पक्ष, आज भी उस स्तर की चर्चा का विषय नहीं बन पाया जितना कि उसे होना चाहिए। आज जब समूचे विश्व की नजर में गांधी की छवि एक महात्मा, अहिंसा के पथ-प्रदर्शक एवं एक सत्यनिष्ठ समाजसुधारक के रूप में विख्यात है, ऐसे में शायद यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी कि गांधी एक कुशल पत्रकार भी थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिस तरह से हर सामाजिकराष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर गांधीवाद की प्रासंगिकता बढ़ जाती है उस तरह से पत्रकारिता के मूल्यों को कभी गांधीवादी चिंतन के नजरिये से देखने का प्रयास नहीं किया गया है। आज भी पत्रकारिता के सरोकारी मूल्यों के संदर्भ में गांधी का दृष्टिकोण कहीं गौण सा है एवं इस विषय पर पर्याप्त चर्चा नहीं की गयी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी एक कुशल पत्रकार भी थे और अगर गांधी की पत्रकारिता की बारीकियों को समझने का प्रयास किया जाय तो गांधी व्यवहारिक पत्रकारिता के स्तंभों में से एक नजर आते हैं। गांधी की पत्रकारिता भी उनके गांधीवादी सिद्धांतों के मानको पर ही आधारित है। गांधी की पत्रकारिता में भी उनके संघर्षों का बड़ा ही व्याहारिक दृष्टिकोण नजर आता है। जिस आमजन,हरिजन एवं सामाजिक समानता के प्रति गांधी का रुझान उनके जीवन संघर्षों में दिखता है बिलकुल वैसा ही रुझान उनके पत्रकारिता में भी देखा जा सकता है। पत्रकारिता को लेकर गांधी का मानना था कि पत्रकारिता की बुनियाद सत्यवादिता के मूल चरित्र में निहित होती है, जबकि असत्य की तरफ उनन्‍्मुख होकर विशुद्ध एवं वास्तविक पत्रकारिता के उद्देश्यों को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। पत्रकारिता के संदर्भ में गांधी का यह दृष्टिकोण इस बात की पुष्टि करता है कि उनकी पत्रकारिता एवं उनके व्यवहारिक जीवन के सिद्धांतों में किसी भी तरह का दोहरापन नहीं नजर आता। निश्चित तौर पर गांधी के सिद्धांतों एवं उनके द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में किये गए कार्यों के बीच का यह सामंजस्य ही उन्हें पत्रकारिता के महान मार्गदर्शक के रूप में स्थापित करता है। पत्रकारिता में गांधी के योगदान की ऐतिहासिकता पर नजर डाले तो उनकी पत्रकारिता की शुरुआत ही विरोध की निडर अभिवयक्ति के तौर पर हुई थी। 20वी सदी के शुरुआती दौर में जब गांधी अफ्रीका में वकालत कर रहे थे उसी दौरान वहाँ की एक कोर्ट ने उन्हें कोर्ट परिसर में पगड़ी पहनने से मना कर दिया था। अपने साथ हुए इस दोहरेपन का विरोध करते हुए गांधी ने डरबन के एक स्थानीय संपादक को चिट्टी लिखकर अपना विरोध जाहिर किया, जिसको उस अखबार द्वारा प्रकाशित भी किया गया था। अखबार को लिखे उस पत्र को गांधी की पत्रकारिता की दिशा में बढाया गया पहला कदम माना जा सकता है हालाकि तत्कालीन दौर में गांधी को भारत में भी कोई नहीं जानता था। पत्रकारिता के प्रति गांधी की निष्ठा और विश्वास का ही परिणाम रहा कि सन 9098 में गांधी द्वारा अफ्रीका में इन्डियन ओपिनियन का प्रकाशन शुरू हो सका। यह गांधी की सत्यनिष्ठ और निर्भीक पत्रकारिता का असर ही तो था कि अफ्रीका जैसे देश में रंगभेद जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद पाँच अलग्अलग भारतीय भाषाओं में इस अखबार का प्रकाशन होता रहा। इस अखबार के प्रकाशन के साथ-साथ गांधी के निर्भीक स्वर अन्य अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों से भी गूंजने लगे थे। शायद यह वो दौर था जब मोहनदास करमचंद गांधी "महात्मा गांधी" तो नहीं लेकिन “पत्रकार गांधी”बन चुके थे। 904 में जब महात्मा गांधी को इन्डियन ओपिनियन का संपादक बनाया गया, उसके बाद उन्होंने अपने तमाम लेखों के माध्यम से अफ्रीका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों की समस्याओं को उठाया। गांधी की पत्रकारिता के स्वर इतने निर्भीक रहे कि उनके लेखों से विचलित अफ्रीकी प्रशासन ने 900 में उन्हें जोहान्सवर्ग की एक जेल में बंद कर दिया। पत्रकारिता में निर्भीकता के चरम का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए गांधी ने जेल से ही संपादन कार्य जारी रखा। अपनी पत्रकारिता की पारदर्शिता को कायम रखने का यह कठिन किन्तु बड़ा फैसला गांधी ही ले सकते थे कि संपादक रहते हुए गांधी ने कभी अखबार के लिए किसी से विज्ञापन तक नहीं लिया। गांधी जी के सम्पादकीय लेखों का असर उन दिनों की अफ्रीकी सरकारों पर भी खूब रहा एवं भारत में अंग्रेजी हुकुमत पर भी उनके लेखों का व्यापक असर दिखने लगा था। गांधी के लेखनी की कुशलता पर लिखते हुए एक अंग्रेजी लेखक ने यहाँ तक कहा है 'गांधी के सम्पादकीय लेखों का हर एक वाक्य थाट्स फॉर द डे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता हैं" गांधी की पत्रकारिता में भाषाई दायरे भी छोटे नजर आते हैं। दाएँ हाथ से हिन्दी और उर्दू लिखने वाले गांधी बाएं हाथ से शानदार अंग्रेजी लेखन भी करते थे। गांधी की नजर में पत्रकारिता का उद्देश्य जनजागरण करना था एवं वो जनमानस की समस्याओं को मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे। भारत आने के पश्चात गुलामी की परिस्थितियों से रूबरू गांधी ने सत्य,अहिंसा के समानान्तर पत्रकारिता एवं लेखन को भी अपना हथियार बनाया। गांधी ने स्व-संपादन में यंग इंडिया का प्रकाशन शुरू किया जो लोगों द्वारा बेहद पसंद किया गया। बाद में इसी का गुजराती संस्करण भी नवजीवन के नाम से शुरू किया गया। समाज के निचले तबके के लोंगो के प्रति गांधी का चिंता उनकी पत्रकारिता में भी खुलकर सामने आती है। दलित-शोषित समाज की आवाज उठाने के उद्देश्यों से महत्मा गांधी द्वारा हरिजन में भी तमाम लेख लिखे गए जिसका तत्कालीन समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। भारतीय ही नहीं वरन विश्व के समूचे पत्रकारिता जगत को जरुरत है कि वो महात्मा गांधी को महज महात्मा गांधी तक सिमिति ना करके उस "पत्रकार गांधी" के मूल्यों,आदर्शों एवं सिद्धांतों को पढ़ें,समझे और आत्मसात करें। निष्कर्ष, परिणाम एवं सुझाव निष्कर्ष सवीं शताब्दी में जिन व्यक्तियों ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से विश्व-इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया, उनमें भारत के मोहनदास करमचंद गांधी का उल्लेख बड़े आदर के साथ होता है। भारत के स्वाधीनता-संग्राम काल में रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा' की पदवी दी और स्वतंत्र भारत में उन्हें राष्ट्रपिता' के रूप में सम्मान दिया गया। गांधी का जीवन बहुआयामी और बहुउद्देशीय था। इंग्लैण्ड में शिक्षा ग्रहण करने से लेकर दक्षिण अफ्रीका में रहने और फिर भारत लौटने तक तथा उसके उपरांत उनके देहांत तक उनके व्यक्तित्व के विभिन्‍न रूप सामने आते हैं। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र न था जहाँ गांधी न पहुँचे हों तथा देश-विदेश की ऐसी कोई समस्या नहीं थी, जिस पर गांधी ने न सोचा हो और अपने विचार व्यक्त न किए हों। देश-विदेश के असंख्य विद्वानों ने गांधी के बहुआयामी कृतित्व की व्यापक मीमांसा की है, परंतु उनका पत्रकार तथा पत्रकारिता का पक्ष लगभग अछूता रह गया है, जिसकी गंभीरतापूर्वक विवेचना नहीं हुई है। गांधी के जीवन का यह पक्ष कम महत्त्वपूर्ण नहीं है और इसीलिए उपेक्षणीय भी नहीं है। गांधी को महात्मा गांधी बनाने में इंग्लैण्ड के शिक्षा-काल तथा दक्षिण अफ्रीका के प्रवास-काल का योगदान महत्त्वपूर्ण है, परंतु उनके व्यक्तित्व के निर्माण तथा विश्वव्यापी विस्तार में पत्रकारिता का योगदान भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। गांधी यदि अध्ययन के लिए इंग्लैण्ड नहीं जाते तो वे बैरिस्टर नहीं होते और बैरिस्टर नहीं होते तो दक्षिण अफ्रीका नहीं जाते: इस प्रकार उनके पत्रकार बनने तथा अपने लक्ष्यों के लिए पत्रकारिता के उपयोग की संभावनाएँ भी धूमिल हो जातीं। इंग्लैण्ड तथा दक्षिण अफ्रीका के लगभग पच्चीस वर्ष के प्रवास-काल में गांधी में अंग्रेजी सत्ता और अंग्रेजी सभ्यता के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रबल संकल्प-शक्ति उत्पन्न हुई और उन्होंने भारत-सेवा के साथ मानव- सेवा की नई जीवन-दृष्टि विकसित की और इसके प्रचार तथा विस्तार का आधार पत्रकारिता को बनाया। गांधी ने पत्रकारिता का उपयोग दो प्रकार से किया--एक, इंग्लैण्ड के प्रवास-काल तथा दक्षिण अफ्रीका में देशी-विदेशी समाचार-पत्रों का गांधी ने अपने कार्यों एवं विचारों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए भरपूर उपयोग किया और उन्हें समाचार-पत्रों में विशेष स्थान मिलता चला गया; दूसरा, गांधी ने कई दशकों तक पत्रकार के रूप में कार्य किया, कई समाचार-पत्रों का संपादन किया, एक मौलिक नैतिकतापूर्ण पत्रकारिता की नीति प्रस्तुत की और स्वाधीनता-संग्राम में उसको व्यवहार में डाला। दक्षिण अफ्रीका हो या भारतवर्ष, गांधी का प्रमुख लक्ष्य भारतीयों को पराधीनता से मुक्त कराकर उनमें स्वाभिमान, राष्ट्र एवं संस्कृति प्रेम को जाग्रत्‌ करना था। पत्रकारिता इस उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम थी। महात्मा गांधी कुशल प्रकाशक होने के साथ साथ कुशल संपादक भी थ। उन्होंने अपने जीवनकाल में गई समाचार पत्रों का प्रकाशन और संपादन किया। इस सामयिक विषय पर चर्चा वर्तमान में पूर्णतः न्यायोचित है, क्योंकि बदलते दौर में उद्देश्यपरक पत्रकारीय परंपराओं को याद करते हुए ही नए ज़माने में कदम बढ़ना चाहिए | पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों की रक्षा करते हुए हम किस प्रकार आगे बढ़ सकते हैं, अगर यह बात हम विचार करते हैं तो महात्मा गांधी के रुप में हमारे माने एक ऐसा चेहरा आता है, जिसने न केवल पत्रकारिता में बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में जो कहा, वह कर के दिखलाया भी | भारत के अंतरराष्ट्रीय ब्रांड अंबेसडर महात्मा गांधी ने इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में कई कार्य किये हैं, जिन्हें गिनाये बिना शायद पत्रकारिता का इतिहास अधूरा रह जाए। वैसे कोई भी समाज सुधारक हो, अपनी बातों से जन जन तक पहुंचाने के लिए उसे प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष पत्रकार बनना ही पड़ता हैऔर तभी सुविचारित तथ्य हम आगे बढ़ा पाते हैं| इस संबंध में जहाँ महात्मा गांधी के पत्रकारीय योगदानों को हमें क्रमवार देखने का प्रयत्न करना चाहिए, वहीं डिजिटल युग में पत्रकारों के सामने किस प्रकार की चुनौतियां हैं उसे भी समझने का प्रयत्न करना चाहिए | बहुत मुमकिन है कि गाँधी के पत्रकारीय उद्देश्यों को अगर हम आज के डिजिटल युग में ढालने का प्रयत्न करें तो फिर गांधी के रामराज्य॑ का उद्देश्य कुछ हद तक ही सही, पाया जा सकता है अथवा उसकी आस जगाई जा सकती है | महात्मा गांधी जहां खुद इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, हरिजन नामक पत्रिका निकालते थे, वहीं इस पत्रिका में तत्कालीन समस्याएं जैसे छुआछूत, धर्मांतरण इत्यादि पर भी साफगोई से अपना नजरिया रखते थे | उनके नित्य-प्रतिदिन लिखे गए लेखों से समाज आंदोलित होता था | वस्तुतः महात्मा गांधी को सिर्फ आजादी की लड़ाईका नेतृत्वकर्ता कह दिया जाना उनके साथ न्यायपूर्ण नहीं होगा. बल्कि सामाजिक समस्याओं से लड़ने में भी वह हमेशा अग्रणी रहे | जाहिर तौर पर इसमें उनका पत्रकार होना सबसे प्रमुख भूमिका में था | उनकी पत्रकारिता कीबारीकियों को समझने का प्रयास किया जाए तो वह व्यावहारिक पत्रकारिता के स्तंभ कहे जा सकते हैं | गाँधी द्वारापत्रकारिता के शुरुआत की बात की जाए तो जब महात्मा गांधी अफ्रीका में वकालत कर रहे थे, उसी दौरान वहां कीएक अदालत ने उन्हें कोर्ट परिसर में पगड़ी पहनने से मना कर दिया था | इस दोहरेपन का विरोध करते हुए गांधी नेतब डरबन के एक स्थानीय संपादक को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध प्रकट किया था, जिसको उस अखबार नेप्रकाशित भी किया था | तत्पश्चात, अफ्रीका प्रवास के दौरान उन्होंने इन्डियन ओपिनियन के जरिए अपने सिद्धांतों की बात करते हुए देशवासियों के हित में आवाज उठायी | गांधी की निर्भीक पत्रकारिता से प्रभावित होकर अफ्रीकाजैसे देश में, जहाँ रंगभेद चरम पर था, वहां पांच अलग-अलग भारतीय भाषाओं में इस अखबार का प्रकाशन होता रहा था | जाहिर तौर पर महात्मा गाँधी के इन पत्रकारीय मूल्यों की बार-बार बात होनी चाहिए | तब अन्य अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों में भी महात्मा गाँधी के तमाम लेख छपने लगे थे | गौर करने वाली बात यह है कि गांधी की पत्रकारिता में भारतीय मूल के लोगों की समस्याओं को हमेशा से ही शिद्दत से उठाया जाता रहा | उनकी पत्रकारिता प्रभाव इस कदर फैलने लगा था कि उनके लेखों से विचलित अफ्रीकी प्रशासन ने 906 में उन्हें जोहांसबर्ग में एक जेल में बंद कर दिया तो, गांधी की सटीक लेखनी का लोहा मानते हुए किसी अंग्रेजी लेखक ने यहां तक कहा है कि गांधी के संपादकीय लेखों के वाक्य 'थाट फॉर द डे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकते हैं | दिलचस्प यह भी कि भाषाई अवरोध गांधी की पत्रकारिता में कभी आड़े नहीं आये | वह बेहद सहजता से समय और अवसर के अनुकूल हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में लेखन करते थे और पत्रकारिता का उद्देश्य 'जनजागरण्ण के लिए जुटे रहते थे | बाद में उन्होंने स्व-संपादन में यंग इंडिया का प्रकाशन शुरू किया जो जनमासन के बीच काफी लोकप्रिय हुआ | बाद में इसका गुजराती संस्करण 'नवजीवन के नाम से भी शुरू किया गया | इन बातों के अतिरिक्त, महात्मा गाँधी का जो सबसे बड़ा योगदान था, वह समाज के निचले तबके के प्रति गांधी की चिंता थी | पीड़ित-दलित-शोषित समाज की आवाज उठाने के उद्देश्य से उन्होंने समय-समय पर हरिजरन में विचारोत्तेजक लेख लिखे, जिसका तत्कालीन समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा | उनके लेख और पत्रकारीय उद्देश्य आज भी उतने ही सार्थक हैं, इस बात में दो राय नहीं है | महात्मा गांधी राजनीति में चैबीस घंटे निमग्न रहते हुए भी राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे। इसी तरह उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाएं निकालीं, लेकिन वे पत्रकार नहीं थे। जैसे उन्होंने राजनीति को नया स्वरूप दिया, उसे भारतीय मूल्यों और मान्यताओं से जोड़ा, उसी तरह उन्होंने पत्राकारिता को नया स्वरूप दिया, उसे भारतीय मूल्यों और मान्यताओं से जोड़ा। दक्षिण अफ्रीका में उनकी पत्रिकाएं आश्रम जीवन, जनचेतना, आत्मनिर्भरता, स्वास्थ्य, नैतिक जीवन, सामाजिक कार्य, अनुचित सरकारी कानून और उनके विरुध सत्याग्रह की जानकारी से भरी रहती थीं। इंडियन ओपिनियन का हर अंक इन विविध विषयों की मूल्यवान जानकारी से भरा हुआ होता था। भारत में आने के बाद उन्होंने जिन पत्रों का संपादन अपने हाथ लिया उनकी सामग्री और भी विशद थी। यंग इंडिया, नवजीवन या हरिजन के अंकों में आप भारतीय समाज और सभ्यता के बारे में जितनी सामग्री पाएंगे उतनी और कहीं उपलब्ध नहीं थी। उस सामग्री पर सरसरी निगाह डालकर ही आप समझ जाएंगे कि वह एक साथ ही नैतिक भी थी, सामाजिक भी और राजनैतिक भी। जिस तरह महात्मा गांधी ने जनचेतना को एक उद्देश्य के रूप में पत्र-पत्रिकाओं में उपयोग किया था, उसी तरह आज भी उनका उपयोग किया जा सकता है। महात्मा गांधी की जैसी पत्रकारिता पेशेवर लोगों के लिए भी संभव नहीं है। लेकिन समाज के बारे में जानने समझने वाले लोग प्रयत्नशील हो तो सोद्देश्य पत्रिकाएं निकल सकती हैं। उसके लिए उन लोगों को सामने आना होगा जो इसे एक सामाजिक कार्य समझते हुए बिना किसी आर्थिक अपेक्षा के सहयोग करने के लिए तैयार हैं। यह भ्रम है कि समाज में रंगीन और मंहगी छपाई ही ग्राह्म होती है। सादगी का अपना आकर्षण होता है। पत्रिकाओं की सामग्री अवश्य ऐसी हो जिसमें समाज का आगे का मार्ग दिखता हो और उसकी अपनी मान्यताओं का उसमें दिग्दर्शन हो। विपरित परिस्थितियों में ही गांधी खड़े हुए थे और उनकी पत्रकारिता भी। उनमें संकल्प था, वैसा संकल्प हो तो ऐसी पत्रकारिता की गुंजाइश सदा रहेगी। अगर पत्रकारिता को पूरे समाज के जनचेतना व मंगल की भावना से जोड़ सके तो वह गांधी जी जैसी पत्रकारिता ही होगी। गांधी के 50 वें जन्मवर्ष में हो रहे इस तरह के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि इनके माध्यम से हम गांधी की पत्रकारिता को पुनर्जीवित करने की दिशा में सार्थक प्रयास कर सकते हैं। पत्रकारिता, समाज सेवा एवं जनचेतना वाली राजनीति करने वालों के लिए गांधी आदर्श है। पत्रकारिता के क्षेत्र मं सच को उजागर करना पहली जिम्मेदारी है। इसकी शुरूआत स्वयं महात्मा गांधी ने की थी। आज गांधी के विचारों को पूरा विश्व नमन कर रहा है। भारत को विश्व गुरू बनने के लिए गांधी दर्शन अपनाना होगा। गांधी जी सदैव यह चाहते थे कि समाचार पत्र आत्मनिर्भर बनें। महात्मा की पत्रकारिता और वर्तमान समय को लेकर विमर्श हो रहा है और यह कहा जा रहा है कि महात्मा की पत्रकारिता का लोप हो चुका है। बात शायद ग़लत नहीं है किन्तु पूरी तरह ठीक भी नहीं। महात्मा की पत्रकारिता को एक अलग दृष्टि से देखने और समझने की ज़रूरत है। महात्मा की पत्रकारिता दिल्‍ली से देहात तक अलग अलग मायने रखती है। वे पत्रकारिता को समाजसेवा का साधन मानते थे किन्तु पत्रकारिता आज स्वयं के जीवन का साध्य बन कर रह गयी है। महात्मा गाँधी की पत्रकारिता में जनचेतना के तत्वों और आज की पत्रकारिता को जाँचने के पहले कुछ बुनियादी बातों की चर्चा कर लेना सामयिक होगा। पत्रकार महात्मा गाँधी द्वारा पत्रकारिता के लिये बताये गये मानदंड और आज की पत्रकारिता के मानदंड में कोई साम्य नहीं है। दोनों की पत्रकारिता एक तरह से नदी के दो पाट की तरह हो गये हैं जो चलेंगे तो साथ साथ किन्तु कभी मिल नहीं पाएंगे। पत्रकारिता की बात होगी और पत्रकारिता के लिये पत्रकार महात्मा को याद किया जाएगा किन्तु जब उनके बताये रास्ते पर चलने की बात होगी तो दोनों वापस नदी के दो किनारों की तरह हो जाएँगे। यह बात तो शीशे की तरह साफ है कि आज की पत्रकारिता में महात्मा की पत्रकारिता का लोप हो चुका है किन्तु क्या यह सच नहीं है कि इतना स्याह हो जाने के बाद भी पत्रकारिता की बुनियाद उन्हीं बातों पर टिकी है जो पत्रकार महात्मा बता गये थे। पत्रकार गाँधी जी के साथ साथ चलते हुए इस दौर के महान पत्रकारों के बारे में बात करना लाज़िमी होगा। पत्रकारिता की जो बुनियादी बातें हैं उनमें पहला है पत्रकारिता की निष्पक्षता। दूसरी बात है पत्रकारिता का तथ्यों को तटस्थ होकर पाठकों के समक्ष रखना न कि न्यायाधीश बनकर फ़ैसला देना। तीसरी बात पत्रकारिता को व्यवसाय न बनाना। फौरीतौर पर तीनों ही बातें पत्रकारिता से ख़ारिज़ कर दी गयी लगती हैं किन्तु सच यह है कि पत्रकारिता आज भी इन्हीं तीन बातों के कारण जनमानस की आवाज बनी हुई है। जीवन जीने के बुनियादी अधिकार को दिलाने में पत्रकारिता हमेशा से सक्रिय रहा है किन्तु कभी इस पर चर्चा नहीं की गई। जनचेतना के तत्वों में सामाजिक समस्याओं को निष्पक्ष ढंग से उठाना और उन्हें समाधान की ओर प्रेरित करना बेहद आवश्यक रहा है और पत्रकारिता कमोबेश यही कार्य करती रही है | मनुष्य का मन मस्तिष्क तमाम मामलों मेंसटीक निर्णय ले सकता है, अगर उसे सही सूचना प्राप्त हो और पत्रकार बिरादरी वही तो करती है | समाजिक समस्याओं के साथ-साथ पत्रकारिता का जुड़ाव राजसत्ता और राजनीति से भी सीधा-सीधा माना जाता है, क्योंकि कई ऐसी नीतियां होती हैं, कई ऐसे कदम प्रशासन द्वारा उठाए जाते हैं जिनका प्रभाव / दुष्प्रभाव जनता पर पड़ता है. उसके पीछे के तथ्यों की विवेचना करना और सामने लाना वर्तमान पत्रकारिता के मूलभूत उद्देश्यों में गिनाया जा सकता है | हमारे देश में तमाम ऐसे पत्रकार हुए हैं जिन्होंने समयसमय पर अपनी आवाज से बुराइयों की दिशा बदली है तो प्रशासन एवं राजनीति को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वह जनता के हितों में कार्य करें | महात्मा गाँधी के जनचेतना के सन्दर्भ में ज़िक्र ऊपर किया ही जा चुका हैं | ऐसे में यह कहा जाना उचित होगा कि आज की पत्रकारिता परंपरागत मीडिया और डिजिटल पत्रकारिता के बीच झूल रही है | डिजिटलाईजेशन की आपाधापी में कहीं ना कहीं पत्रकारिता के मूल्यों को समझने में थोड़ा बहुत ही सही, हम सभी को प्रयत्न करना चाहिए | गांधी ने भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को दिशा देने का काम किया | जीवन के अंतिम समय तक राजनीतिक और सामाजिक काम किए | इसके बावजूद उन्होंने अपनी पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा संगठन का मोहरा नहीं बनाया | वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे | उसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम के बारे में सोचते थे| सच की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे | साथ ही पाठकों को यह अधिकार देते थे कि वे समाचार पत्र पर नजर रखें कि कहीं कोई अनुचित और झूठी खबर तो नहीं छपी है | अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है| उन्होंने यहां तक लिखा है, संपादक पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए, जिसका उपयोग संपादक के बिगड़ने पर हो | ऐसा लिखते हुए गांधी एक तरह से जनचेतना वाली पत्रकारिता को चोट पहुंचाने वालों को शक की नजर से देखने की वकालत करते थे | शक करने वाली उनकी सीख का मायने आज कहीं अधिक है| आज पत्रकारिता में जिस तरह से खबरों के प्रकाशन/प्रसारण में पक्षपात किया जा रहा है उसे देखते हुए पाठकों को हर खबर को शक की नजर से देखना होगा | पत्रकारिता ने तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला सिद्धांत लगभग बिसरा दिया है, लेकिन लोगों को ये जिम्मेदारी उठानी होगी | अगर ऐसा कर लेंगे तो वही महात्मा गांधी की 50वीं जयंती के वर्ष में उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी |

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