सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ की पत्रकारिता

उर्दू साप्ताहिक स्वराज की  पत्रकारिता
उर्दू साप्ताहिक स्वराज कि पत्रकारिता कि अवधि ढाई साल थी इसके कुल प्रकाशित अंक 75 और कुल संपादक 08 थे। इस अखबर में सभी संपादकों को मिला कर और देश निकाला- 94 वर्ष 09 माह। किसी समाचार पत्र को अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी होगी? किसी अखबार के संपादक कि पदवी काँटों का ऐसा ताज सिद्ध हुई? सारी दुनिया कि पत्रकारिता के इतिहास में ऐसा दूसरा प्रसंग दुर्लभ ही नहीं, लगभग असंभव है। लेकिन संघर्षों कि यह सत्य कथा 1907 ई. में इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक स्वराज की आपबीती है। इसके संस्थापक संपादक शांतिनरायण भटनागर थे। भारतमाता सोसाइटी इलाहाबाद ने इसका प्रकाशन किया था। पृष्ट संख्या थी आठ और वार्षिक शुल्क 4 रुपये था। स्वराज का ध्येय वाक्य था। “हिंदुस्तान के हम हैं, हिंदुस्तान हमारा है।“ इसके आदि संपादक शांतिनारायण भटनागर पलहे लाहौर से प्रकाशित हिंदुस्तान के संपपादक रह चुके थे। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ, वातावरण की सरगर्म बनाए हुए थी। बंगाल के विभाजन के विरोध में बंग- भंग आंदोलन चल रहा था ऐसे माहौल में प्रबल स्वातंत्रय चेतना की मशाल थम स्वराज पत्र अस्तित्व में आया और आरंभ से ही फिरंगी हुकूमत की आँख की किरकिरी बन गया ।
            बदायूं का अखबार जू उल करनीन (04 जुलाई 1908) इस संघर्ष कथा पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं –  शांति नारायण प्रिन्टर व पब्लिशर स्वराज इलाहाबाद का मुकदमा खत्म हो गया। मिस्टर वालिश गवर्नमेंट एडवोकेट ने सरकार की तरफ से और मि, टंडन ने मुलजिम की तरफ से दफा 124 – (ए) उन मजमीन की निस्बत (लेखों के कारण) चलाया है जो 23और 30 मई के अखबारत में शाया हुए हैं। 29 फरवरी को भी मुलजिम ने एक मजमून फहट और उसका इलाज (अकाल और उसका निदान) शाया किया था जिस पर उसके तंबीह (समझाइश) की गयी मगर उसने इस तंबीह की आखिर आठ जून को मुलजिम को दो साल कैद सख्त और पाँच सौ रुपये जुर्माने की सजा हुई। अगर जुर्माना अदा ण हुआ तो नौ माह कैद रहेंगे।
            जून 1908 से स्वराज के संपादकों के लिए जेल और जुर्माने की यह जो कहानी शुरू हुई उसने अगले डेढ़ वर्ष के भीतर कुल आठ संपादकों को 94 वर्ष 9 माह की कुल सजाएं दिलवाकर अंतत: इस अखबार का गला घोंट दिया । शांतिनरायण कर पाये थे की भटनागर पर हुए जुर्माने की वसूली के लिए स्वराज प्रैस नीलाम कर दिया गया।  नया प्रेस स्थानीय किया गया और होतीलाल वर्मा ने संपादक का जिम्मा लिया। कुछ ही अंक प्रकाशित हो पाये थे कि उन्हे भी दस वर्ष कि कैद की सजा सुना दी गयी। तब साप्ताहिक स्वराज ने अपने लिए संपादक की तलाश में जो विज्ञापन छापा था उसे जू उल करनीन ने फरवरी 1909 के  अपने अंक में इस प्रकार उदद्भव किया है-
 “एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी यह शरहे – तनख्वाह (वेतन) है जिस पर स्वराज इलाहाब्द की वास्ते एक एडिटर मतलूब (आवश्यकता) है। यह वह अखबार है जिसके दो एडिटर बगावत आमेज मजामीन (विद्रोहात्मक लेखों) की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके हैं । अब तीसरा एडिटर मुहैया करने के लिए जो इश्तिहार दिया जाता है उसमे जो शरहे तनख्वाह जाहीर की गयी है एक ऐसे एडिटर की दरकार है जो अपने एशोआराम पर जेलखाने में रह कर जौ की रोटी और एक प्याला पानी को तरजीह दे।“
            हौसलों की बुलंदी का शानदार उदाहरण देखिये कि इस विज्ञापन के बाद भी स्वराज के लिए संपादकों कि कमी नहीं पड़ी। एक संपादक जेल या देश निकले पर जाता तो दूसरा सिर पर कफन बांधे कुर्बानी का जज्बा लिए तैयार मिलता । तीसरे संपादक बाबू हरिदास स्वराज के मात्र ग्यारह अंकों का संपादक कर पाये थे कि उन्हें 21 वर्ष के लिए देश निकाले कि सजा दे दी गई। तदनंतर लाहौर से प्रकाशित हो रही भारतमाता के संपादक मुंशी रामसेवक ने इलाहाबाद आकर काँटों का यह ताज पहना। वे जिला दंडधिकारी के समझ स्वराज का संपादक-प्रकाशन करने के लिए घोषणा पत्र दाखिल करने के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिए गए। तब कलेक्टर ने कटाक्ष किया अब कौन स्वराज निकलेगा? देहरादून के नंदगोपाल चोपड़ा आगे आए, घोषणा पत्र दाखिल किया और साप्ताहिक स्वराज का प्रकाशन फिर आरंभ हुआ। इस बार भी सिर्फ 12 अंक ही प्रकाशित हो पाये कि नंदगोपाल चोपड़ा को तीस वर्ष कि देश निकाले कि सजा सुना दी गई।
            22 जुलाई 1910 के मुखबिर आलम जो मुरादाबाद से प्रकाशित होता था, इस संबंध में प्रकाशित खबर इस प्रकार है- “नंदगोपाल एडिटर स्वराज इलाहाबाद को अपील हाईकोर्ट में उनके वकील पुरषोत्तम दस ने कि जिसमे बड़े पैराये में फाजिल जवान से तीन दरख्वास्ते कि गयी है- एक, दस साल कि कैद मुलजिम को दी गयी है बहुत संगीन है इसमे जरूर कमी होनी चाहिए। दूसरे, यह मुजलिम कि खानदानी हैसियत, तालीम और करेक्टर का लिहाज रख कर उसे कैद सख्त नहीं बल्कि महज कैद कि जाएँ और तीसरे यह के मुलजिम को लाहौर के एक मुकदमे में पाँच साल कि सजा हो चुकी है इसलिए जज साहिबान गवर्नमेंट से सिफ़ारिश फरमाए यह दोनों सजाएँ एक ही वक्त में शुरू हो।" तब के समाचार पत्रों में, खास कर वे समाचार पत्र और संपादक जिनका जमीर जिंदा था और संघर्ष को जी पत्रकारिता का अविभाज्य अंग मान कर कर चलते थे, एक – दूसरे के संघर्ष में सहकार की भावना प्रबल थी। स्वराज की लड़ाई के लिए महामना मदनमोहन मालवीय की चिंता इसका ज्वलंत प्रमाण है।
सन् 1909 में प्रयाग के स्वराज के आठ संपादक दस महीने की अवधि में राजद्रोह के मुकदमे और सजा के शिकार हो गए तब मालवीय ने ही आर्थिक सहायता दी, पुरुषोत्तमदास टंडन को उनकी पैरवी करने की प्रेरणा दी और जेल में निरुद्ध संपादकों के परिवार का पोषण किया। उर्दू भाषी अखबार होने की आड़ में जेबी कुछ लोगो ने इस पर उंगली उठाई, तब मालवीय ने उत्तर दिया – “मैंने जो कुछ किया है वह देश में प्रैस की स्वतन्त्रता दृढ़ करने के लिए किया है। यदि मै ऐसा न करता तो मै विचार सवातंत्र्य समाप्त करने के दोष का भागी होता। जहां तक इन युवकों की सहायता की बात है, मै कैसे न करता। क्या कोई पिता अपने पुत्रों को केवल मतभेद के कारण छोड़ता है और विशेषत: ऐसे पुत्रों को जिनकी देशभक्ति चमचमाते हुये स्वर्ग के समान समुज्ज्वल है? मै यह पापअपने सिर नहीं लेना चाहता कि द्रोणाचार्य के समान अभिमन्यु-हत्या का दोष-भागी बनू।“
            नंदगोपाल चोपड़ा के बाद लद्दाराम कपूर स्वराज के संपादक हुये। उन्हे तीस साल कि सजा हुई और यह काटने के लिए अंडमान कि काल कोठरी में भेज दिया गया। एक बार फिर संपादक का आसन खाली हुआ। पंडित अमीरचंद बंबवाल ने यह बीड़ा उठाया। उनसे 2000 रुपये कि जमानत मांगी गई और नया घोषणा पत्र दाखिल करने के लिए कहा गया। सारी शर्ते पूरी कर देने के बाद 1910 में स्वराज का पुन: प्रकाशन जरूर हुआ लेकिन कुल 04 अंक ही निकाल पाये थे कि अखबार की जमानत जप्त कर ली गयी। जमानत के लिए धनराशि एकत्रित कराते समय बंबवाल को गिरफ्तार कर लिया गया। पुरुषोत्तम दस टंडन ने उनकी ओर से जोरदार पैरवी की। उन्हें एक साल की सजा हो गई। गिरफ्तारी का वारंट निकला, लेकिन वे फरार हो गए और अंतत; गिरफ्त में आ गए। उनकी गिफ़्तारी के साथ स्वराज बंद हो गया और फिर कभी नहीं निकाल पाया।                                                 







    


                                  
     



रविवार, 13 अक्तूबर 2019

संचार शोध

संचार शोध 

संचार शोध में जिन संचार शास्त्री या प्रतिरूपों से मदद ली जाती है,उनमें बिल्वर श्रेम प्रमुख सिंद्धान्तकार हैं। बिल्वर श्रेम ने 1964 मास मीडिया एंड नेशनल डेवलोपमेन्ट में 1977 में बिग इंडिया और लिटिल मीडिया में भारत के विकास को सामने रखकर जनसंचार माध्यमों की विकास मूलक भूमिका को एक मुक्कमल आधार दिया।
हमारे यहां भूमिका की लेकर बहस होती रहीं है और शोध भी, नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में अपनी व्यक्तिगत विचार व्यक्त की है।और उन विचार पर बहुत से शोध किये गए हैं। तकनीक के विकास मूलक उपयोग और रचनात्मक विकास का सवाल भी मूलतः संचार माध्यमों से विचार मूलक शब्द जुड़ा हुआ है। भारत में रेडियो और टेलीविजन को लेकर दो विचार रहे हैं।एक के अनुसार  ये माध्यम शिक्षा और मनोरंजन के माध्यम हैं।दूसरे के अनुसार  रेडियो और टेलीविजन का विकास फालतू का विकास है। बिल्वर श्रेम ने रेडियो और टेलीविजन की विकास मूलक भूमिका सबसे पहले भारत को ही अपना उदाहरण बनाया।अगर हम बिल्वर श्रेम जैसे संचारकों को आधार माने तो संचार के क्षेत्र में क्या प्रश्न बन सकते हैं ।
शोध प्रश्न
1. किसी समाज में परिवर्तन के साथ संचार का क्या संबंध है?..
2. उत्तरोत्तर आधुनिक में संचार कैसे उत्पन्न होता है?..
3. विकास कार्यक्रम में अंतरवैयक्तिक संचार आम जनता से क्या प्रभाव है?.
4. आर्थिक और सामाजिक विकास सहयोग के लिए संचार माध्यम क्या कार्य कर सकते हैं?
5. विकास के विभिन्न चरणों में खड़े लोगों की जरूरतें क्या अलग अलग है?
6. विकासशील समाजों में कौनसी संचार रणनीतियां उपलब्ध हैं?
7. इन सारे प्रश्नों का जवाब बिल्वर श्रेम ने देते हुए स्पष्ट किया कि इनके जवाब संचारक के पास नहीं मिल सकता क्योंकि यह सवाल मुख्यतः आर्थिक एवं राजनीतिक सामाजिक से जुड़ा सवाल है ?...
संचार प्रक्रिया में कुछ बाते तो सामान्य हैं।जैसे  जहां कहीं भी परिवर्तन है, वहीं नई संचार क्रिया पैदा होती है।संचार प्रायः सभी समाजों में एक जैसी जरूरते पूरा करती है। चाहे वे समाज उत्तर आधुनिक हो या पूर्व आधुनिक वे उनके पर्यावरण को देखने में लोगों के बीच संवाद करने में समाज की अलग अलग प्रवृति होने के बावजूद संचार ये कार्य करते हैं। 1958 में डेनियल लर्नर ने अपने शोधों  के आधार पर संचार और विकास की अंतर क्रिया पर अपनी क्रांतिकारी अवधारणा प्रस्तुत की।
लर्नर का मानना था, जब किसी देश 10 प्रतिशत शहरीकरण हो जाता है, तब जाकर वहां साक्षरता में उन्नति होती है।
इसी तरह से माध्यम ही संदेश है।सिद्धान्त प्रस्तुत करने वाले मार्शल मैकलुहान संचार शोध के लिए एक आधार देते हैं। संदेश और माध्यम के बीच किसी भी शोध में मैकलुहान की अवधारणा एक कुंजी का कार्य करती है।
ज्ञान समस्या तब पैदा होती है, जब दर्शक टेलीविजन या सिनेमा या अन्य रेडियो से सबकुछ चाहने लगता है जो एक माध्यम के रूप में नहीं दे सकता। उदाहरण के लिए एक माध्यम के रूप टेलीविजन एक निश्चित प्रकृति हैं।उसी प्रकृति में वह संचालित करती रहती है।अब उस माध्यम को और उसके संदेश को क्या मानकर एक देखा जा सकता है या अलग-अलग।
किसी भी शोध में लॉसवेल के प्रतिरूप को लाया जाता है, उसमें श्रोता, एनालिसिस इंपैक्ट विश्लेषण प्रभाव, संपर्क सूत्र है।

संचार शोध

देश के किसानों के हालात में सुधार के लिए कौन बनेगा उनका गांधी?

अहिंसा के पुजारी वो, जुल्मों के खिलाफ आँधी थे माँ भारती की संतान वो, बापू महात्मा गाँधी थे। ‘महात्मा’ यानी ‘महान आत्मा’। एक साधारण से असाधार...