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संस्कृति आदान-प्रदान में मीडिया की भूमिका

                                     संस्कृति आदान-प्रदान में मीडिया की भूमिका
हमारा देश आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है । वैश्वीकरण ने एक ओर अमरीकी डालर का तथा दूसरी ओर अंग्रेजी भाषा का महत्व बढ़ा दिया है । चूंकि हमारी शिक्षा में मानसिक परिपक्वता को स्थान नहीं है, अत: हम एक प्रवाह में पड़ गए । आंखें मूंदकर चले ही जा रहे हैं । अच्छे-बुरे अथवा उपादेय एवं हेय का भेद करना भूल गए । शिक्षित समाज धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति से और स्वयं अपनी आत्मा से दूर होता जा रहा है । अभी इनकी संख्या बहुत कम है, किन्तु इनका झुकाव अंग्रेजी संस्कृति एवं जीवन दर्शन की ओर दिखाई पड़ता है । ये ही लोग देश के नीति-निर्माता भी हैं ।
          परिणाम यह होता है कि जब भी कोई नीति संस्कृति में बदलाव की बात कहती है, तब टकराव की एक स्थिति बन जाती है । अधिकांश देशवासी मूल अवधारणाओं में बदलाव नहीं चाहते । नई संस्कृति इन मर्यादाओं को तोड़ती हुई दिखाई पड़ती है। जैसा कि आज संविधान की धारा 377 के मामले में होता दिखाई पड़ता है ।
          ऎसे हालात में मीडिया की भूमिका को भी इसी भाषाई परिपेक्ष में देखना चाहिए । अंग्रेजी मीडिया और टीवी नई विचारधारा के पोषक दिखाई पड़ते हैं । आम आदमी से दूर रहने के कारण भारतीय मानसिकता को गहराई से नहीं समझ पाते । भारतीय शब्दों को अंग्रेजी में अनुवाद करके ही समझते हैं । अत:  विदेशी विचारधारा एवं तर्क देकर विषयों को प्रस्तुत करते रहते हैं । भाषाई समाचार-पत्र लोगों के नजदीक भी रहते हैं और सांस्कृतिक विषयों के साथ भी जुड़े होते हैं । वे मूल्यों पर किसी भी दबाव का विरोध करते हैं । हमारे नीति-निर्माता इसीलिए अंग्रेजी मीडिया तथा टीवी पर आश्रित रहते हैं । वहां टकराव भी नहीं है और उनके अहंकार की तुष्टि भी हो जाती है । चिन्तनधारा भी एक सी होती है । इस प्रकार मीडिया भी देशी एवं अंग्रेजी भेद से दो भागों में बंट गया ।
          अंग्रेजी का सर्वाधिक प्रभाव हमारे अधिकारी एवं न्यायिक वर्ग पर दिखाई पड़ता है । इनकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण दोनों ही अंग्रेजी में होते हैं । इनकी जीवनशैली भी वैसी ही रहती है । इनके मुकाबले नेता आम आदमी के ज्यादा नजदीक होते हैं, किन्तु दोनों का चोली-दामन का साथ रहता है । नीतियां तो अधिकारी बनाते हैं । आम आदमी से तो इनका नाता ही नहीं रहा । विदेशी कानूनों और विश्लेषणों के आधार पर यहां भी कानून बनाते रहते हैं । देश में एक नई संस्कृति पैदा की जाने लगी है । नए कानूनों के कारण जनजीवन भी अस्त-व्यस्त और त्रस्त होने लगा है । इस ओर कानूनविदों का या नेताओं का ध्यान कभी नहीं जाता । देश में शान्ति के स्थान पर अशान्ति की प्रतिष्ठा होती है । टकराव तो सरकार से किया नहीं जाता, भ्रष्टाचार को अवश्य बढ़ावा मिलता रहता है ।
          आवश्यक यह है कि हम किसी व्यवस्था अथवा जीवन की अवधारणा को अच्छा-बुरा तो नहीं कहें, किन्तु हर निर्णय का दूरगामी परिणाम तो निर्णय करने से पहले समझ लें । यही तो नहीं होता । जिन लोगों को ईश्वर ने देश चलाने के लिए संसद में बिठाया, वे भी यदि प्रवाह में बहने लगे, तब दोष हम किस को देंगे ।
          हमें न अंग्रेजी से विरोध है, न ही किसी अन्य भाषा से। भाषा तो माध्यम ही है। जब तक माध्यम रहती है, तब तक कोई हानि भी नहीं होती । हो क्या रहा है कि हमारे शब्दों के समकक्ष अंग्रेजी शब्द ढूंढ़कर दोनों के पूरक की तरह काम लेने लग गए हैं । इस दोष को यदि दूर कर लिया जाए, तो टकराव स्वत: ही रूक जाएगा। उदाहरण के लिए हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है । धर्म की परिभाषा के अनुसार किन्हीं दो व्यक्तियों का धर्म एक नहीं हो सकता । हर व्यक्ति का अपना निजी धर्म होता है । धर्म को हम अंग्रेजी के रिलिजन में बदल दें तो वह साम्प्रदायिक/सामूहिक स्वरूप है । संविधान का सम्प्रदाय निरपेक्ष होना तो सही होगा । धर्मनिरपेक्ष अथवा अधर्मी होना वांछित नहीं है । धर्म की तरह शिक्षा भी एक अवधारणा है । बहुत बड़ी परिभाषा है इसकी और इसमें सम्पूर्ण जीवन का सर्वागीण विकास सम्मिलित है । एजुकेशन में व्यक्ति की तो कहीं चर्चा ही नहीं है । केवल विषय पढ़ाए जाते हैं । और इसका लक्ष्य केवल नौकरी देना रह गया । शेष जीवन से इसका लेना-देना ही नहीं है । शिक्षा नीति भले किसी भी भाषा में बने, उसकी मूल अवधारणा बनी रहनी चाहिए ।
           आज शिक्षित व्यक्ति ही अधिक अपराध करता दिखाई पड़ता है । यह तो शिक्षा का अपमान ही कहा जाएगा । जब अरबों रूपए खर्च करके इसी शिक्षा को बढ़ावा दिया जाएगा तो एक संवेदनाविहीन मानव संस्कृति का ही निर्माण होगा । इसका विरोध करना ही यदि टकराव है, तो यह तो समय के साथ बढ़ता ही जाएगा । भले ही मीडिया का एक हिस्सा धन लेकर मौन हो जाए, देश की आत्मा तो मुक्ति के लिए छटपटाएगी ।

आज मीडिया अपनी राष्‍ट्रीय भूमिका को नहीं समझ रहा है, वे केवल व्‍यावसायिकता की भाषा को ही समझने में लगा है । हमारी संस्‍कृति का मूल मंत्र है चराचर जगत की रक्षा करना । पश्चिम की संस्‍कृति का मंत्र है कि जो शक्तिशाली होगा वो ही जीवित रहेगा । हम सब की सुरक्षा का जिम्‍मा लेते हैं और वे स्‍वयं को शक्तिशाली बनाने में जुटे हैं । यही कारण है कि यह टकराव बढता ही जा रहा है । हमारे जीवन से अनेकान्‍तवाद समाप्‍त हो गया है ।
          आदिकाल से चली आ रही संस्कृति की मुख्य धारा अब परिवर्तित होती जा रही है । इस परिवर्तन का मुख्य कारण है, सांस्कृतिक हस्तान्तरण  प्रत्येक पीढ़ी, पारम्परिक संस्कृति में जो उसे विरासत में मिलती है, अपने ज्ञान और अनुभव को जोड़ती है । इस प्रकार वह प्राचीन संस्कृति में अपने ज्ञान अनुभव जोड़कर अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है । सांस्कृतिक हस्तान्तरण का यह क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी निर्बाध से चलता रहता है । इस हस्तान्तरण की प्रक्रिया में एक समय ऐसा आता है जब प्राचीन संस्कृति का मूल स्वरूप परिवर्तित हो जाता है । यही परिवर्तित संस्कृति समाज में नव संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित होती है । नव संस्कृति का तात्पर्य संस्कृति की नवीनता से है । मानव का यह स्वभाव रहा है कि वह समानुकुल परिवर्तनों को अपनी सुविधानुसार आत्मसात करता है ।
          आज के युग में मनुष्य वैज्ञानिक उपकरणों पर निर्भर है । इससे भी हमारी संस्कृति में परिवर्तन आए हैं और प्राचीनता की जगह आधुनिकता का वर्चस्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है । इसमें मीडिया की भूमिका अति महत्वपूर्ण दिखाई पड़ती है। ‘‘ संचार तकनीक के विकास ने जिस क्षेत्र को सर्वाधिक प्रभावित किया  के विकास के साथ हुआ। संचार तकनीक के विकास से पत्रकारिता की गति बढ़ी हैए पत्रकारिता विधा के नये आयमों का विकास और इसमें अमूल चूल परिवर्तन हुआ है ।’’1 मीडिया प्रौद्योगिकी के अधिकाधिक प्रयोग का प्रभाव समाज की अर्थ-व्यवस्था एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर व्यापक रूप से दिख रहा है और मीडिया की, इसके परिवर्तित होते रूप को स्पष्ट करने मे, से कुछ इसमें बेहद महत्वपूर्ण है । भूमिका हमेशा से ही रही है। प्राचीनतम संस्कृति अब आधुनिकतम हो गयी है । नव संस्कृति के विभिन्न कारकों की अगर बात की जाए तो अनेक कारकों में से कुछ इसमें बेहद महत्वपूर्ण है । जैसे आधुनिकता, औद्योगीकरण अर्थव्यवस्था, खान-पान आदि ये सब नव संस्कृति की ही देन है । मीडिया प्रौद्योगिकी के अधिकाधिक प्रयोग के कारण मानव जीवन की विभिन्न गतिविधियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आयें हैं । इसका प्रभाव समाज की अर्थ व्यवस्था एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर व्यापक रूप से पड़ा है। व्यापारिक एवं वाणिज्यिक गतिविधियों में मीडिया ने एक विशेष स्थान अर्जित कर एक नई व्यवस्था का सूत्रपात किया है ।
          ये नई व्यवस्था ही आधुनिक संस्कृति है। जिसे नव संस्कृति की संज्ञा दी जा सकती है और इस संस्कृति का जन्म, संरक्षण एवं पोषण सब मीडिया द्वारा ही हो रहा है। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि नव संस्कृति के संवाहक के रूप् में मीडिया सशक्त भूमिका निभा रहा है । इसके विविध रूप संस्कृतिक संचार में सहायक हैं । सर्वप्रथम ग्राम्य संस्कृति से उपजी पारम्परिक मीडिया ने इसमें अपनी अलग भूमिका निभाई । इसने देशवासियों के धार्मिक, सांस्कृतिक ऐतिहासिक एवं सामाजिक जीवन के निकट पहुच कर बतो को लोगों तक पहुंचना इनकी विषय वस्तु जन सामान्य की परंपरा, रीतिरिवाज, उत्सव और समारोह से सम्बद्ध बातें होती हैं । इसमें रोचकता और अपनापन होता है । लोक कलाओं का उद्भव और विकास अनपढ़, अकृत्रिम ग्रामीण जनता के बीच हुआ । ग्रामीण परिवेश के  संचार के पारम्परिक माध्यमों में पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों से तादात्म्य स्थापित कर लेने की अद्भुत क्षमता होती है । जैसा कि मैक ब्राइड आयोग का कथन है कि -
           ‘‘जन सामान्य के प्रति अपने व्यापक आकर्षण और लाखों निरक्षर लोगों के गहनतम संवेगों को छूने के अपने गुण की दृष्टि से गीत और नाटक का माध्यम अद्वितीय होता है।’’
           विश्व के सभी अविकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में, नशा उन्मूलन, साक्षरता अभियान, पोलियो उन्मूलन, एड्स नियंत्रण आदि कार्यक्रमों की सफलता बहुत हद तक इन पारम्परिक माध्यमों पर ही निर्भर करती है। धार्मिक अन्धविश्वास, कुपोषण, दहेज आदि सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध जागृति पैदा करने में पारम्परिक माध्यमों की भूमिका महत्वपूर्ण है । पारम्परिक मीडिया की इस प्रभाव क्षमता से प्रभावित होकर इलेक्ट्रानिक मीडिया भी इसे आत्मसात कर रही है । पारम्परिक मीडिया अपनी संस्कृति का सफलता पूर्वक संचार करती है। यही कारण है कि नवीन सकारात्मक सांस्कृतिक परिवर्तनों का प्रचार-प्रसार भी पारम्परिक मीडिया द्वारा ही किया जाता है । इससे यह स्पष्ट है कि संस्कृति के संवहन में पारम्परिक मीडिया की महती भूमिका है ।
          इसके तत्पश्चात् बात आती है प्रिन्ट मीडिया की । इसके बारे में स्पष्ट करते हुए डॉ0 अर्जुन तिवारी ने लिखा है, ‘‘ लोक मानस को अभिव्यक्ति करने की जीवन्त विधा ही पत्रकारिता है । जिससे सामयिक सत्य मुखरित होते हैं। समय और समाज के सन्दर्भ में सजग रहकर नागरिकों में दायित्व बोध कराने की कला को पत्रकारिता कहते है । जन संवेदना के संचार का सर्वसुलभ प्रभावकारी जन माध्यम ही पत्रकारिता है ।’’2
           युगबोध के प्रमुख तत्वों के साथ ही मानवता के विकास और विचारोत्तेजन का राजमार्ग ही पत्रकारिता है जिससे जन जीवन पल-पल उद्वेलित होता रहता है । समाज, संस्कृति, साहित्य, दर्शन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रसार के चलते मानव संघर्ष,, क्रान्ति, प्रगति, दुर्गति से प्रभावित जीवन सागर में उठने वाले ज्वार भाटा को दिग्दर्शित करने वाली पत्रकारिता अत्यन्त महत्वपूर्ण हो चुकी है। जनता, समाज, राष्ट्र और विश्व को गरीबी का भूगोल, पूंजीपतियों का अर्थशास्त्र और नेताओं का समाजशास्त्र पढ़ाने में पत्रकारिता ही सक्षम है। इस जीवन्त विद्या से जन-जन के सुख-दुख, आशा, आकांक्षा को मुखरित किया जाता है। पत्रकारिता अपने सांस्कृतिक परिवेश से पूर्ण रूप से प्रभावित होती है। समाचार पत्रों के आकार-प्रकार, मेकअप और प्रस्तुतीकरण में निरंतर हो रहे परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन के ही परिचायक हैं ।
           वर्तमान समय की पत्रकारिता में तकनीकी और प्रौद्योगिकी परिवर्तन स्पष्ट हैं । भारतीय परिवेश में जिस हिन्दी भाषा में ज्ञान, दर्शन, अध्यात्म और रचनात्मक सृजन के मानदण्ड रचे गये हों उसके लिये यह स्वाभाविक है कि अब वह आधुनिक तकनीकों से अपना तालमेल बनाये । आधुनिक तकनीक  संस्कृति की संवाहक है और उससे तालमेल बिठाकर पत्रकारिता भी नव संस्कृति की संवाहक बन गयी है ।
          सूचना तकनीक के अधिकाधिक प्रयोग और विशेष रूप से इंटरनेट के विस्तार के कारण सारी दुनिया के दृष्टिकोण में तेजी से बदलाव आ रहा है । जिस गति से विश्व में सूचनाओं का आदान-प्रदान हो रहा है। उसी अनुपात में इंटरनेट एक क्रान्तिकारी माध्यम के रूप में उभर रहा हैं । इसका लोगों, परिवारों, पूरे समाज, अर्थ-व्यवस्था और देशों की प्रशासनिक व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा है। प्रिन्ट मीडिया भी इससे अलग नहीं है। प्रिन्ट मीडिया में काम करने वाले लोग दिनों-दिन अपनी जानकारी और स्रोत के लिए इंटरनेट को अपनाने लगे हैं । राष्ट्रीय, प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय स्तर का शायद ही कोई ऐसा समाचार पत्र हो जिसने इंटरनेट को न अपनाया हो। इस प्रकार संस्कृति की पहचान बन चुकी आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी का आश्रय लेकर अब प्रिन्ट मीडिया भी अपने प्राचीन मूल्यों, आदर्शों को संशोधिक करके सूचना शिक्षा एवं मनोरंजन का व्यवसाय करने लगी है । पहले पाठकों की रूचि परिष्कृत करने के लिये समाचार पत्रों का प्रकाशन होता था ।
           अब पाठकों की रुचि का सर्वेक्षण करके उसके अनुरूप समाचार पत्रों का प्रकाशन किया जाने लगा है । पाठकों की रुचि  संस्कृति को अपनाने में ज्यादा है । इसीलिये अब समाचार पत्र एवं पत्रिकएँ को नव संस्कृति के संवाहक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं । अतः यह स्पष्ट है कि आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी का अधिकतम उपयोग करके प्रिन्ट मीडिया नव संस्कृति की प्रमुख संवाहक बन गया है । प्रिन्ट मीडिया के द्वारा शिक्षित जनमानस की विचारधारा में परिवर्तन लाकर उन्हें  संस्कृति के प्रसार में वैचारिक योगदान के लिये प्रेरित किया जाता है । यह एक स्पष्ट प्रमाण है कि प्रिन्ट मीडिया आधुनिक युग में नव संस्कृति की प्रमुख संवाहक है तो वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसमें चार चांद लगा दिये हैं । संचार के इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में रेडियो, सिनेमा और टेलीविजन अन्य की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण और सर्वसुलभ हैं इनके द्वारा सांस्कृतिक संचार का कार्य विश्वव्यापी और प्रभावी हो गया है । जहा तक हिन्दी पत्रकारिता का सावल है-‘‘ संचार क्रान्ति की आधुनिक तकनीक हिन्दी पत्रकारिता के लिए साधन मात्र है जिसका सकारात्मक उपयोग ही मंगल कारी है । हिन्दी पत्रकारिता मूल उद्देश्य जन चेतना का प्रसार, अन्याय का प्रतिकार और भ्रष्टाचार को उजागर करना है। यही उसका साध्य है ।’’3
           वर्तमान संचार क्रान्ति की अग्रदूत सूचना प्रौद्योगिकी ने रेडियो को एक नये दौर में पहुंचा दिया है । इससे रेडियो द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों में गुणात्मक सुधार हुआ है । श्रोताओं की संख्या में वृद्धि हुई है । अपने श्रोताओं तक सूचनाओं के प्रसार तथा शिक्षाप्रद एवं मनोरंजक कार्यक्रमों के प्रसारण द्वारा समाज के सर्वांगीण विकास में रेडियो एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है, तो वहीं आधुनिक संचार क्रान्ति में टी0वी0 की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । टी0वी0 किसी राष्ट्र की प्रगति का प्रामाणिक व्याख्याता है। ये राष्ट्र के सांस्कृतिक स्वरूप का दर्पण है ।
          मनुष्य के दैनिक जीवन में टी0वी0 की घुसपैठ ने जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है । इसके माध्यम से हमारे जीवन में सूचनाओं का विस्फोट हो रहा है। जिस गति से वर्तमान विश्व में टी0वी0 का विकास हुआ है । उसी गति से विश्व की संस्कृति भी परिवर्तित हुई है । तात्कालिकता, घनिष्ठता और विश्वसनीयता के कारण टी0वी0 सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाने में सर्वाधिक सशक्त भूमिका का निर्वाह कर रहा है । वहीं सिनेमा का प्रयोग प्रायः मनोरंजन के लिये ही किया जाता है । इसकी आवश्यकता की अनुभूति तब होती है जब व्यक्ति थक जाता है । व्यक्ति अवकाश के समय कुछ मनोरंजन चाहता है । ऐसे समय में सिनेमा का चलायमान रूप  अपने कथानक में दर्शक को समेट लेता है । मानव मन पर गहरा प्रभाव डालने की क्षमता के कारण सिनेमा जनसंचार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण माध्यम है ।        सिनेमा में विज्ञान की शक्ति और कला का सौंदर्य होता है । ये मस्तिष्क को खुराक देता है और हृदय को आन्दोलित करता है । यह ऐसा प्रभावकारी माध्यम है जो शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन, नर-नारी तथा सभी उम्र के लोगों को प्रभावित करता है । राष्ट्रीय एकता, अछूतोद्धार, नारी जागरीण, अन्याय, शेषण, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसे प्रश्नों पर जन-जन को जागृत करने वाला माध्यम सिनेमा ही हैं ।
                                                        निष्कर्ष
 आधुनिक युग की जीवन शैली इतनी जटिल हो गयी है कि मनुष्य कम से कम समय में, अपने सारे निर्धारित कार्य सम्पन्न करना चाहता है । इस आपा-धापी और समायाभाव का प्रभाव उसकी जीवन शैली पर पड़ता है और वह जीवन-यापन की प्राचीन मान्यताओं को भुलाकर अपनी सुविधानुसार जीवन शैली अपनाता है। इस प्रकार उसके दैनिक आचरण के तरीके बदल जाते हैं । खान-पान, पहनावा, संस्कार आदि सभी बदल जाते हैं । आज मनुष्य के पास भोजन करने तक का भी समय नहीं है किन्तु जीवन के लिए भोजन की आवश्यकता को देखते हुए  ’’फास्ट फूड’’ संस्कृति अपना ली गयी है । इसमें भोजन बनाने, खाने और उसे पचाने में अपेक्षाकृत कम श्रम, समय व्यय करना पड़ता है । आवश्यक पौष्टिक तत्वों का समावेश करके वह कम समय में ही अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना चाहता है । यही स्थिति पहनावे- वेषभूषा, संस्कृति आदि में भी देखने को मिलती है ।
          ललित कलाओं के संगम के रूप में प्रदर्शित सिनेमा सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चेतना का साधन तो है ही, जनता को प्रशिक्षित करने की भी उसमें अद्भुत क्षमता है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अपने इन बहुआयामी गुणों के कारण सिनेमा संचार का एक सशक्त माध्यम है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चाहे पारम्परिक मीडिया हो, या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी प्रसार सीमा के अन्तर्गत सभी अपने प्रभाव क्षमता का पूर्ण उपयोग करके संस्कृति आदान-प्रदान में मीडिया में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहें हैं ।

संन्दर्भ ग्रंथ
1. डा0 शशि भूषण कुमार ‘शशि ’, शोध संचयन (पत्रिका), जनवरी 2010,पृष्ठ-103
2. डा0 अर्जून तिवारी, जन संचार समग्र, पृष्ठ-64
3. डा0 शशि भूषण कुमार ‘शशि ’ , शोध संचयन, जनवरी 2010, पृष्ठ-107
4. (ग्रंथशिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड से प्रकाशित ‘संचार माध्यम और पूँजीवादी समाज, सम्पादक : मुरली मनोहर प्रसाद सिंह से साभार)


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