उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ की पत्रकारिता
उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ की
पत्रकारिता
उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’
कि पत्रकारिता कि अवधि ढाई साल थी इसके कुल प्रकाशित अंक 75 और कुल संपादक 08 थे।
इस अखबर में सभी संपादकों को मिला कर और देश निकाला- 94 वर्ष 09 माह। किसी समाचार
पत्र को अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी होगी? किसी अखबार के संपादक कि पदवी काँटों का ऐसा ताज सिद्ध हुई? सारी दुनिया कि पत्रकारिता के इतिहास में ऐसा दूसरा प्रसंग दुर्लभ ही
नहीं, लगभग असंभव है। लेकिन संघर्षों कि यह सत्य कथा 1907 ई.
में इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ की आपबीती है। इसके संस्थापक संपादक शांतिनरायण भटनागर थे। भारतमाता
सोसाइटी इलाहाबाद ने इसका प्रकाशन किया था। पृष्ट संख्या थी आठ और वार्षिक शुल्क 4
रुपये था। स्वराज का ध्येय वाक्य था। “हिंदुस्तान के हम हैं,
हिंदुस्तान हमारा है।“ इसके आदि संपादक शांतिनारायण भटनागर पलहे लाहौर से प्रकाशित
हिंदुस्तान के संपपादक रह चुके थे। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ, वातावरण की सरगर्म बनाए हुए थी। बंगाल के विभाजन के विरोध में बंग- भंग
आंदोलन चल रहा था ऐसे माहौल में प्रबल स्वातंत्रय चेतना की मशाल थम स्वराज पत्र
अस्तित्व में आया और आरंभ से ही फिरंगी हुकूमत की आँख की किरकिरी बन गया ।
बदायूं
का अखबार जू उल करनीन (04 जुलाई 1908) इस संघर्ष कथा पर प्रकाश डालते हुए लिखते
हैं – शांति नारायण प्रिन्टर व पब्लिशर
स्वराज इलाहाबाद का मुकदमा खत्म हो गया। मिस्टर वालिश गवर्नमेंट एडवोकेट ने सरकार
की तरफ से और मि, टंडन ने मुलजिम की तरफ से दफा 124 – (ए) उन मजमीन की निस्बत (लेखों के
कारण) चलाया है जो 23और 30 मई के अखबारत में शाया हुए हैं। 29 फरवरी को भी मुलजिम
ने एक मजमून फहट और उसका इलाज (अकाल और उसका निदान) शाया किया था जिस पर उसके
तंबीह (समझाइश) की गयी मगर उसने इस तंबीह की आखिर आठ जून को मुलजिम को दो साल कैद
सख्त और पाँच सौ रुपये जुर्माने की सजा हुई। अगर जुर्माना अदा ण हुआ तो नौ माह कैद
रहेंगे।
जून
1908 से स्वराज के संपादकों के लिए जेल और जुर्माने की यह जो कहानी शुरू हुई उसने
अगले डेढ़ वर्ष के भीतर कुल आठ संपादकों को 94 वर्ष 9 माह की कुल सजाएं दिलवाकर
अंतत: इस अखबार का गला घोंट दिया । शांतिनरायण कर पाये थे की भटनागर पर हुए
जुर्माने की वसूली के लिए स्वराज प्रैस नीलाम कर दिया गया। नया प्रेस स्थानीय किया गया और होतीलाल वर्मा
ने संपादक का जिम्मा लिया। कुछ ही अंक प्रकाशित हो पाये थे कि उन्हे भी दस वर्ष कि
कैद की सजा सुना दी गयी। तब साप्ताहिक स्वराज ने अपने लिए संपादक की तलाश में जो
विज्ञापन छापा था उसे जू उल करनीन ने फरवरी 1909 के अपने अंक में इस प्रकार उदद्भव किया है-
“एक जौ
की रोटी और एक प्याला पानी यह शरहे – तनख्वाह (वेतन) है जिस पर स्वराज इलाहाब्द की
वास्ते एक एडिटर मतलूब (आवश्यकता) है। यह वह अखबार है जिसके दो एडिटर बगावत आमेज
मजामीन (विद्रोहात्मक लेखों) की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके हैं । अब तीसरा
एडिटर मुहैया करने के लिए जो इश्तिहार दिया जाता है उसमे जो शरहे तनख्वाह जाहीर की
गयी है एक ऐसे एडिटर की दरकार है जो अपने एशोआराम पर जेलखाने में रह कर जौ की रोटी
और एक प्याला पानी को तरजीह दे।“
हौसलों
की बुलंदी का शानदार उदाहरण देखिये कि इस विज्ञापन के बाद भी स्वराज के लिए
संपादकों कि कमी नहीं पड़ी। एक संपादक जेल या देश निकले पर जाता तो दूसरा सिर पर
कफन बांधे कुर्बानी का जज्बा लिए तैयार मिलता । तीसरे संपादक बाबू हरिदास ‘स्वराज’
के मात्र ग्यारह अंकों का संपादक कर पाये थे कि उन्हें 21 वर्ष के लिए देश निकाले
कि सजा दे दी गई। तदनंतर लाहौर से प्रकाशित हो रही भारतमाता के संपादक मुंशी
रामसेवक ने इलाहाबाद आकर काँटों का यह ताज पहना। वे जिला दंडधिकारी के समझ स्वराज
का संपादक-प्रकाशन करने के लिए घोषणा पत्र दाखिल करने के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिए
गए। तब कलेक्टर ने कटाक्ष किया अब कौन स्वराज निकलेगा?
देहरादून के नंदगोपाल चोपड़ा आगे आए, घोषणा पत्र दाखिल किया
और साप्ताहिक स्वराज का प्रकाशन फिर आरंभ हुआ। इस बार भी सिर्फ 12 अंक ही प्रकाशित
हो पाये कि नंदगोपाल चोपड़ा को तीस वर्ष कि देश निकाले कि सजा सुना दी गई।
22
जुलाई 1910 के मुखबिर आलम जो मुरादाबाद से प्रकाशित होता था, इस संबंध में प्रकाशित खबर इस
प्रकार है- “नंदगोपाल एडिटर ‘स्वराज’ इलाहाबाद
को अपील हाईकोर्ट में उनके वकील पुरषोत्तम दस ने कि जिसमे बड़े पैराये में फाजिल
जवान से तीन दरख्वास्ते कि गयी है- एक, दस साल कि कैद मुलजिम
को दी गयी है बहुत संगीन है इसमे जरूर कमी होनी चाहिए। दूसरे, यह मुजलिम कि खानदानी हैसियत, तालीम और करेक्टर का
लिहाज रख कर उसे कैद सख्त नहीं बल्कि महज कैद कि जाएँ और तीसरे यह के मुलजिम को
लाहौर के एक मुकदमे में पाँच साल कि सजा हो चुकी है इसलिए जज साहिबान गवर्नमेंट से
सिफ़ारिश फरमाए यह दोनों सजाएँ एक ही वक्त में शुरू हो।"
तब के समाचार पत्रों में, खास कर वे समाचार पत्र और संपादक
जिनका जमीर जिंदा था और संघर्ष को जी पत्रकारिता का अविभाज्य अंग मान कर कर चलते
थे, एक – दूसरे के संघर्ष में सहकार की भावना प्रबल थी।
स्वराज की लड़ाई के लिए महामना मदनमोहन मालवीय की चिंता इसका ज्वलंत प्रमाण है।
सन् 1909 में प्रयाग के ‘स्वराज’
के आठ संपादक दस महीने की अवधि में राजद्रोह के मुकदमे और सजा के शिकार हो गए तब
मालवीय ने ही आर्थिक सहायता दी, पुरुषोत्तमदास टंडन को उनकी
पैरवी करने की प्रेरणा दी और जेल में निरुद्ध संपादकों के परिवार का पोषण किया।
उर्दू भाषी अखबार होने की आड़ में जेबी कुछ लोगो ने इस पर उंगली उठाई, तब मालवीय ने उत्तर दिया – “मैंने जो कुछ किया है वह देश में प्रैस की
स्वतन्त्रता दृढ़ करने के लिए किया है। यदि मै ऐसा न करता तो मै विचार सवातंत्र्य
समाप्त करने के दोष का भागी होता। जहां तक इन युवकों की सहायता की बात है, मै कैसे न करता। क्या कोई पिता अपने पुत्रों को केवल मतभेद के कारण छोड़ता
है और विशेषत: ऐसे पुत्रों को जिनकी देशभक्ति चमचमाते हुये स्वर्ग के समान
समुज्ज्वल है? मै यह पापअपने सिर नहीं लेना चाहता कि
द्रोणाचार्य के समान अभिमन्यु-हत्या का दोष-भागी बनू।“
नंदगोपाल
चोपड़ा के बाद लद्दाराम कपूर ‘स्वराज’ के संपादक हुये। उन्हे तीस साल कि सजा हुई
और यह काटने के लिए अंडमान कि काल कोठरी में भेज दिया गया। एक बार फिर संपादक का
आसन खाली हुआ। पंडित अमीरचंद बंबवाल ने यह बीड़ा उठाया। उनसे 2000 रुपये कि जमानत
मांगी गई और नया घोषणा पत्र दाखिल करने के लिए कहा गया। सारी शर्ते पूरी कर देने
के बाद 1910 में ‘स्वराज’ का पुन:
प्रकाशन जरूर हुआ लेकिन कुल 04 अंक ही निकाल पाये थे कि अखबार की जमानत जप्त कर ली
गयी। जमानत के लिए धनराशि एकत्रित कराते समय बंबवाल को गिरफ्तार कर लिया गया।
पुरुषोत्तम दस टंडन ने उनकी ओर से जोरदार पैरवी की। उन्हें एक साल की सजा हो गई।
गिरफ्तारी का वारंट निकला, लेकिन वे फरार हो गए और अंतत; गिरफ्त में आ गए। उनकी गिफ़्तारी के साथ ‘स्वराज’ बंद हो गया और फिर कभी नहीं निकाल पाया।
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