सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

देश के किसानों के हालात में सुधार के लिए कौन बनेगा उनका गांधी?


अहिंसा के पुजारी वो, जुल्मों के खिलाफ आँधी थे

माँ भारती की संतान वो, बापू महात्मा गाँधी थे।

‘महात्मा’ यानी ‘महान आत्मा’। एक साधारण से असाधारण बनने वाले भारत के सपूत मोहन दास करमचंद गाँधी को रवींद्रनाथ टैगोर ने चंपारण सत्याग्रह के दौरान ‘महात्मा’ की उपाधि दी। वैसे तो अनेक नेताओ ने अंग्रेजी शासन की नींव पहले से हिला रखी थी, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में गांधी के आगमन मात्र से ब्रिटिश हुकूमत काँप गई थी। मातृभूमि के लिए अथक प्रयास से भारत माता को स्वतंत्रता की सुगन्ध प्राप्त हुई थी।

दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टरी करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले भारतीय मोहन दास करमचंद गाँधी ने जब पहली बार खुद पर अंग्रेजों के द्वारा काले-गोरे के बीच होने वाले बर्बरतापूर्ण व्यवहार को झेला। उसी वक़्त उन्होंने ठान लिया था कि वे इस मंशा को बदलने के लिए आवाज उठाएंगे। 1915 में वह दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान लौटे। 1917 में चंपारण के राजकुमार शुक्ल ने लखनऊ जाकर महात्मा गांधी से मुलाकात की और चंपारण के किसानों को इस अन्यायपूर्ण प्रक्रिया से मुक्त कराने के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। गांधी जी ने उनका अनुरोध स्वीकार लिया।

19वीं सदी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके बढ़ते प्रचलन के कारण नील की मांग कम होने लगी और उसके बाजार में भी गिरावट आने लगी। इस कारण नील बागान मालिक चंपारण के क्षेत्र में भी अपने नील कारखानों को बंद करने लगे। नील का उत्पादन किसानों के लिए घाटे का सौदा होने लगा। इसलिए, किसान नील बगान मालिकों से किए गए करार को खत्म करना चाहते थे। अंग्रेज़ बगान मालिकों के करार के अनुसार किसानों को अपने कृषिजन्य क्षेत्र के 20 भाग के तीसरे भाग पर नील की खेती करनी होती थी। इसे तिनकठिया पद्धति के नाम से जाना जाता था। अंग्रेज़ बगान मालिक भूमि को करार से मुक्त करने के लिए भारी लगान की मांग करने लगे, जिससे परेशान हो किसान विद्रोह पर उतर आए। उस वक्त उन्हीं के बीच के राजकुमार शुक्ल ने किसानों का नेतृत्व संभाला।

अप्रैल 1917 की दोपहर में बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मोतिहारी रेलवे स्टेशन पर इकट्ठे हुए लोगों ने मोहनदास करमचंद गांधी की एक झलक देखी। उनके आगमन ने न केवल इलाके के लोगों के लिए अहम बदलाव को रेखांकित किया, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को भी नयी धार दी। यह ऐतिहासिक मौका महात्मा गांधी के सत्याग्रह को मूर्त रूप देने का पहला प्रयास था।अहिंसक नागरिक प्रतिरोध के जरिए उन्होंने क्रूर ब्रिटिश हुकूमत और उसके शोषण को खुली चुनौती दी।

महात्मा गांधी, राजकुमार के अनुरोध पर चंपारण तो पहुंच गए लेकिन वहां की अंग्रेज प्रशासन ने उन्हें जिला छोड़ने का आदेश जारी कर दिया। गांधी जी ने इस पर सत्याग्रह करने की धमकी दे डाली, जिससे घबराकर प्रशासन ने उनके लिए जारी आदेश वापस ले लिया। चंपारण में सत्याग्रह, भारत में गांधी जी द्वारा सत्याग्रह के प्रयोग की पहली घटना थी। चंपारण आंदोलन में गांधी जी के नेतृत्व में किसानों की एकजुटता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने जुलाई 1917 में इस मामले की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया। गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया। आयोग की सलाह मानते हुए सरकार ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त घोषित कर दिया। किसानों से वसूले गए धन का भी 25 प्रतिशत वापस कराया गया। इस आंदोलन के जरिए महात्मा गांधी ने लोगों के विरोध को सत्याग्रह के माध्यम से लागू करने का पहला प्रयास किया जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आम जनता के अहिंसक प्रतिरोध पर आधारित था।

महात्मा गांधी के लिए चंपारण आंदोलन का मुख्य केंद्र चंपारण के किसानों की दुर्दशा को दूर करने का था। महात्मा गांधी ने सक्षम वकीलों के साथ चंपारण जिले के लोगों को संगठित किया। उन्होंने जनता को शिक्षित करने में सक्रिय भूमिका निभाई और साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर आजीविका के विभिन्न तरीकों को अपनाकर आर्थिक रूप से मजबूत बनना सिखाया। यह आंदोलन न केवल ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नील की खेती के फरमान को रद्द करने में सफल साबित हुआ बल्कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह वाले असरदार तरीके के साथ भारत के पहले ऐतिहासिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन के तौर पर भी सफल साबित हुआ।

वर्तमान में भारतीय किसानों की दुर्दशा ऐसी है कि किसी को फसल नष्ट करना पड़ता है तो कोई तंग आकर खुद को ही नष्ट कर लेता । बिचौलिए भारत की तमाम व्यवस्था में घुन की तरह रचते-बसते जा रहे हैं। कहीं किसानों से उनके अनाज आधे दामों पर खरीद लिए जाते हैं तो कहीं उनकी उपजाऊ भूमि को कंपनियों या शहरों की शक्ल में ढाल दिया जाता।

किसान चाहे या ना चाहे किसी तरह मजबूर कर उनसे उनकी आत्मा, उनकी जमीन को कम दामों में खरीद सारे शहर गाँवों में घुस आए हैं। एक समय था जब गाँधी जी ने इनपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठा इन्हें इंसाफ दिलवाया। आज हमारे देश की राजनीति का मुद्दा है ‘किसान’। भारतीय किसान बस पार्टियों के चुनाव जीतने का एक्का जान पड़ रहा। क्या आज कोई गाँधी है जो किसानों को उनके इस दुर्दशापूर्ण हालात से मुक्ति दिला पाए ? शायद बस वो एक गाँधी थे।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जनसंपर्क की अवधारणा क्षेत्र एवं कार्य

                                        जनसंपर्क की अवधारणा क्षेत्र एवं कार्य                                                           जनसंपर्क संचार की एक प्रक्रिया है ,   जिसमें जनता से संचार स्थापित किया जाता है। यह एक जटिल और विभिन्न क्षेत्रों की सम्मिश्रित प्रक्रिया है। इसमें प्रबंधन ,   मीडिया , संचार और मनोविज्ञान जैसे विषयों के सिद्धांत और व्यवहार शामिल है। जनसंपर्क की प्रक्रिया एक सुनिश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए की जाती है ,   जो एक सही माध्यम के द्वारा जनता से संपर्क स्थापित कर अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सही दिशा में अग्रसर होने में सहायक होती है। जनसंपर्क ऐसी प्रक्रिया है ,   जो सम्पूर्ण सत्य एवं ज्ञान पर आधारित सूचनाओं के आदान - प्रदान के लिए की जाती हैं। जनसंपर्क दो शब्दों   ‘...

गाँधी जी की पत्रकारिता

गाँधी जी की पत्रकारिता आने वाली पीढियां शायद ही विश्वास करे कि गाँधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। - अल्बर्ट आइन्स्टीन अहिंसा के पथ-प्रदर्शक, सत्यनिष्ठ समाज सुधारक, महात्मा और राष्ट्रपिता के रूप में विश्व विख्यात गाँधी सबसे पहले कुशल पत्रकार थे। गाँधी की नजर में पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीय और जनजागरण था। वह जनमानस की समस्याओं को मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे। पत्रकारिता उनके लिए व्यवसाय नहीं, बल्कि जनमत को प्रभावित करने का एक लक्ष्योन्मुखी प्रभावी माध्यम था। महात्मा गाँधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से ही की थी। गाँधी ने पत्रकारिता में स्वतंत्र लेखन के माध्यम से प्रवेश किया था। बाद में साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। बीसवीं सदी के आरम्भ से लेकर स्वराजपूर्व के गाँधी युग तक पत्रकारिता का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस युग की पत्रकारिता पर गाँधी जी की विशेष छाप रही। गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रम और असहयोग आन्दोलन के प्रचार के लिए देश भर में कई पत्रों का प्रकाशन शुरू हुआ। महात्मा गाँधी में सहज पत्रकार के गुण थे | पत्रकारिता उनक...

History of odiya journalism

History of odiya journalism As a media historian says: “If Gouri Shankar Ray was credited to have printed Odisha’s first newspaper Utkal Dipika in 1866, it was only in early 20th century that journalism got wider acceptance in Odisha following the publication of Asha”. Early history of Dainik Asha   In ancient times the region of Odisha was the center of the Kalinga kingdom, although it was temporarily conquered (c.250 B.C.) by Asoka and held for almost a century by the Mauryas. With the gradual decline of Kalinga, several Hindu dynasties arose and built temples at Bhubaneswar, Puri, and Konarak. After long resistance to the Muslims, the region was overcome (1568) by Afghan invaders and passed to the Mughal empire. After the fall of the Mughals, Odisha was divided between the Nawabs of Bengal and the Marathas. In 1803 it was conquered by the British1.   The Odia-speaking areas were then divided and tagged to the neighboring provinces of Bengal, Central ...