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कार्टून पत्रकारिता का उभरता हुआ माध्यम

  कार्टून पत्रकारिता , जिसे कॉमिक पत्रकारिता के रूप में भी जाना जाता है , कॉमिक्स और इंटरैक्टिव प्रारूपों के माध्यम से गैर-काल्पनिक विषयों को चित्रित करने के लिए कलाकारों और पत्रकारों के बीच एक सहयोगात्मक प्रयास है। यह दृष्टिकोण समाचार और सूचना के वितरण को अधिक आकर्षक और सुलभ बनाकर बढ़ाता है। चुनाव के दौरान , तर्क और दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए इंटरनेट समाचार कार्टून का उपयोग किया गया था। इन कार्टूनों ने वैकल्पिक संचार स्थानों के रूप में कार्य किया , राजनीतिक चर्चाओं में कार्टून पत्रकारिता की भूमिका और व्यापक दर्शकों तक पहुँचने की इसकी क्षमता पर प्रकाश डाला एच. अर्न्टसेन , 2010. सुपरमैन कॉमिक्स के विश्लेषण ने प्रिंट पत्रकारिता के भविष्य और मीडिया कंपनियों के बहुराष्ट्रीय समूहों में परिवर्तन के बारे में चर्चाओं को जन्म दिया है। ये चर्चाएँ इस बात पर जोर देती हैं कि कार्टून पत्रकारिता किस तरह से उभरते मीडिया परिदृश्य और पारंपरिक प्रिंट मीडिया के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में जानकारी दे सकती है एन. क्लेना , 2014. कार्टूनिस्ट गोंजालो रोचा आधुनिक पत्रकारिता में कार्टून पत्रकारिता क

देश के किसानों के हालात में सुधार के लिए कौन बनेगा उनका गांधी?

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अहिंसा के पुजारी वो, जुल्मों के खिलाफ आँधी थे माँ भारती की संतान वो, बापू महात्मा गाँधी थे। ‘महात्मा’ यानी ‘महान आत्मा’। एक साधारण से असाधारण बनने वाले भारत के सपूत मोहन दास करमचंद गाँधी को रवींद्रनाथ टैगोर ने चंपारण सत्याग्रह के दौरान ‘महात्मा’ की उपाधि दी। वैसे तो अनेक नेताओ ने अंग्रेजी शासन की नींव पहले से हिला रखी थी, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में गांधी के आगमन मात्र से ब्रिटिश हुकूमत काँप गई थी। मातृभूमि के लिए अथक प्रयास से भारत माता को स्वतंत्रता की सुगन्ध प्राप्त हुई थी। दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टरी करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले भारतीय मोहन दास करमचंद गाँधी ने जब पहली बार खुद पर अंग्रेजों के द्वारा काले-गोरे के बीच होने वाले बर्बरतापूर्ण व्यवहार को झेला। उसी वक़्त उन्होंने ठान लिया था कि वे इस मंशा को बदलने के लिए आवाज उठाएंगे। 1915 में वह दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान लौटे। 1917 में चंपारण के राजकुमार शुक्ल ने लखनऊ जाकर महात्मा गांधी से मुलाकात की और चंपारण के किसानों को इस अन्यायपूर्ण प्रक्रिया से मुक्त कराने के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। गांधी जी

व्यंग्यचित्रों में देखेगी महात्मा गांधी के विचारों की प्रासंगिकता

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लोग बड़े हर्षोल्लास के साथ महात्मा गांधी की 153वीं जयंती मनाई जाएगी। क्या ? आपका तात्पर्य उस गांधी से है  जिनकी जयंती पर हमें छुट्टी मिलती है और जिन्होंने हमें सत्य , नैतिकता और मूल्यों के बारे में शिक्षा दी ? पर उन्होंने किया क्या ? प्रिय देशवासियो ! भारत की नई पीढ़ी महात्मा गांधी के बारे में किस तरह सोचती है , जिन्हें हम आदर से राष्ट्रपिता कहते हैं। ‘ रघुपति राघव राजा-राम , पतित पावन सीता-राम ’ इन पंक्तियों के कानो तक पहुँचते ही गांधी के विचारों व देश की आजादी के लिए किए गए उनके प्रयासों की रूपरेखा आँखों के आगे घूमने लगती है। गांधी के  विचारों को कार्टूनों द्वारा देखने का प्रयास किया जा रहा है। जहां आप गांधी के 153वीं जयंती मनाने के साथ ही उनके विचारों की प्रासंगिकता व्यंग्यचित्र के माध्यम से देख पाएंगे , वर्तमान परिस्थितियों में नए कार्टूनिस्टों व गांधीवाद पर उनके नजरिए को भी समझ पाएंगे। बता दें कि गांधी के विचारों कि प्रासंगिकता व्यंग्यचित्रों में दिखने को मिलती है। गौरतलब है कि गांधी पूरे देश में सभी नगर निकायों , विभागों , संग्रहालयों सहित विभिन्न अकादमियों द्वारा गांधी कि 1

Online Classes: Challenges faced by Rural Student

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All educational institutions including schools and colleges could complete their academic sessions, before they were closed on March 24 due to the Corona crisis In India. During this period of lockdown, an attempt was made to complete the session through online teaching. Classes were going on in many educational institutions and exams were pending. Controversial web platforms like Zoom were used to make middle and secondary classes online. Somewhere classes were held through Google and somewhere through Skype. Somewhere online material was created on YouTube, sometimes videos of lectures and classes were prepared and put online and sent to groups of students through WhatsApp. But most institutes are not ready for the online exam. Online classes in rural areas student network problem Amidst the compulsion and attraction of online studies, it is also important to know whether the country is really ready for it on the basis of numbers. According to a study, only 12 and a half per

आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों में आम-आदमी की झलक

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आर. के. लक्ष्मण में बचपन से चित्रांकन करने का जुनून था। घूमने-फिरने की उन्हें पूरी आजादी थी। वे बचपन में आसमान  में बादलों को देखा करते थे , तो उनमें , उन्हें बड़ी-बड़ी आकृतियों ने मुझ उनसे कहा ‘ तुम दुनिया में जाओगे तो अपनी कलम और तूलिका से ऐसे चुभते हुये कार्टून बनाओगे , जिनमें लोगों को अपनी विकृतियों के दर्शन हो सकें , जिन्हें देखकर लोग तिलमिला उठें। ’  आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों में दिखने वाले आम आदमी के प्रति लोग जिज्ञासु होंगे। जब देश 1947 में विभाजन हुआ था तो उसी साल लक्ष्मण ने ‘ फ्री प्रेस जर्नल ’ में दाखिला पाया। इस देश में आम-आदमी के सामने बड़ी-बड़ी समस्याएं थीं। गरीबी , भुखमरी और बेरोजगारी थी। लेकिन आम आदमी के पास कोई आवाज नहीं थी। दरअसल उस वक्त लक्ष्मण को लगा आम-आदमी को कोई आवाज मिलनी चाहिए। लक्ष्मण जो कार्टून बनाते थे उसमें लोगों की भीड़ होती थी। दरअसल अखबार में काम करने वाले आदमी के लिए वक्त की पाबंदी का होना जरूरी है। लक्ष्मण कहते हैं , धीरे-धीरे मेरे कार्टूनों में आम आदमियों के आकृतियों की तादाद घटने लगी-बीस से पंद्रह , पंद्रह से दस , दस से पांच और फिर उनमें एक आद

उड़िया पत्रकारिता का इतिहास

भारत के कई अन्य प्रांतों की तरह , उड़ीसा में पत्रकारिता की उत्पत्ति पहले मिशनरी गतिविधियों के बाद सुधारवादी और राष्ट्रीय आंदोलन में हुई। कटक में मिशन प्रेस को 1837 में नए नियम के अनुसार छापने के लिए स्थापित किया गया था , पहली उड़िया पत्रिका ज्ञानरुना (1849) और प्रबोध चंद्रिका (1856) को निकाला।             सन् 1866 में गौरी शंकर राय द्वारा उड़िया का पहला साप्ताहिक अखबार उत्कल दीपिका था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्कल दीपिका ने राष्ट्रवाद के उदय को जन्म दिया। इसने उड़ीसा के सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 19 वीं शताब्दी के अंत में साढ़े तीन दशकों में उड़िया में कई समाचार पत्र प्रकाशित हुए , जिनमें प्रमुख थे।   कटक के उत्कल दीपिका , उत्कल पत्र और उत्कल हितैसिनी ; बालासोर से उत्कल दर्पण और सांबदा वाहिका , देवगढ़ से संबलपुर हितासिनी , आदि।   20वीं सदी के शुरुआती दौर में बंगाल में स्वदेशी आंदोलन को गति मिली थी और इसका उड़ीसा के राजनीतिक और सामाजिक जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस अवधि को उड़ीसा के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारिता के प्रसार से गंजम और कटक से अधिक पत्रों को प्

History of odiya journalism

History of odiya journalism As a media historian says: “If Gouri Shankar Ray was credited to have printed Odisha’s first newspaper Utkal Dipika in 1866, it was only in early 20th century that journalism got wider acceptance in Odisha following the publication of Asha”. Early history of Dainik Asha   In ancient times the region of Odisha was the center of the Kalinga kingdom, although it was temporarily conquered (c.250 B.C.) by Asoka and held for almost a century by the Mauryas. With the gradual decline of Kalinga, several Hindu dynasties arose and built temples at Bhubaneswar, Puri, and Konarak. After long resistance to the Muslims, the region was overcome (1568) by Afghan invaders and passed to the Mughal empire. After the fall of the Mughals, Odisha was divided between the Nawabs of Bengal and the Marathas. In 1803 it was conquered by the British1.   The Odia-speaking areas were then divided and tagged to the neighboring provinces of Bengal, Central Provinces and Madra