बुधवार, 25 जनवरी 2023

देश के किसानों के हालात में सुधार के लिए कौन बनेगा उनका गांधी?


अहिंसा के पुजारी वो, जुल्मों के खिलाफ आँधी थे

माँ भारती की संतान वो, बापू महात्मा गाँधी थे।

‘महात्मा’ यानी ‘महान आत्मा’। एक साधारण से असाधारण बनने वाले भारत के सपूत मोहन दास करमचंद गाँधी को रवींद्रनाथ टैगोर ने चंपारण सत्याग्रह के दौरान ‘महात्मा’ की उपाधि दी। वैसे तो अनेक नेताओ ने अंग्रेजी शासन की नींव पहले से हिला रखी थी, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में गांधी के आगमन मात्र से ब्रिटिश हुकूमत काँप गई थी। मातृभूमि के लिए अथक प्रयास से भारत माता को स्वतंत्रता की सुगन्ध प्राप्त हुई थी।

दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टरी करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले भारतीय मोहन दास करमचंद गाँधी ने जब पहली बार खुद पर अंग्रेजों के द्वारा काले-गोरे के बीच होने वाले बर्बरतापूर्ण व्यवहार को झेला। उसी वक़्त उन्होंने ठान लिया था कि वे इस मंशा को बदलने के लिए आवाज उठाएंगे। 1915 में वह दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान लौटे। 1917 में चंपारण के राजकुमार शुक्ल ने लखनऊ जाकर महात्मा गांधी से मुलाकात की और चंपारण के किसानों को इस अन्यायपूर्ण प्रक्रिया से मुक्त कराने के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। गांधी जी ने उनका अनुरोध स्वीकार लिया।

19वीं सदी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके बढ़ते प्रचलन के कारण नील की मांग कम होने लगी और उसके बाजार में भी गिरावट आने लगी। इस कारण नील बागान मालिक चंपारण के क्षेत्र में भी अपने नील कारखानों को बंद करने लगे। नील का उत्पादन किसानों के लिए घाटे का सौदा होने लगा। इसलिए, किसान नील बगान मालिकों से किए गए करार को खत्म करना चाहते थे। अंग्रेज़ बगान मालिकों के करार के अनुसार किसानों को अपने कृषिजन्य क्षेत्र के 20 भाग के तीसरे भाग पर नील की खेती करनी होती थी। इसे तिनकठिया पद्धति के नाम से जाना जाता था। अंग्रेज़ बगान मालिक भूमि को करार से मुक्त करने के लिए भारी लगान की मांग करने लगे, जिससे परेशान हो किसान विद्रोह पर उतर आए। उस वक्त उन्हीं के बीच के राजकुमार शुक्ल ने किसानों का नेतृत्व संभाला।

अप्रैल 1917 की दोपहर में बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मोतिहारी रेलवे स्टेशन पर इकट्ठे हुए लोगों ने मोहनदास करमचंद गांधी की एक झलक देखी। उनके आगमन ने न केवल इलाके के लोगों के लिए अहम बदलाव को रेखांकित किया, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को भी नयी धार दी। यह ऐतिहासिक मौका महात्मा गांधी के सत्याग्रह को मूर्त रूप देने का पहला प्रयास था।अहिंसक नागरिक प्रतिरोध के जरिए उन्होंने क्रूर ब्रिटिश हुकूमत और उसके शोषण को खुली चुनौती दी।

महात्मा गांधी, राजकुमार के अनुरोध पर चंपारण तो पहुंच गए लेकिन वहां की अंग्रेज प्रशासन ने उन्हें जिला छोड़ने का आदेश जारी कर दिया। गांधी जी ने इस पर सत्याग्रह करने की धमकी दे डाली, जिससे घबराकर प्रशासन ने उनके लिए जारी आदेश वापस ले लिया। चंपारण में सत्याग्रह, भारत में गांधी जी द्वारा सत्याग्रह के प्रयोग की पहली घटना थी। चंपारण आंदोलन में गांधी जी के नेतृत्व में किसानों की एकजुटता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने जुलाई 1917 में इस मामले की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया। गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया। आयोग की सलाह मानते हुए सरकार ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त घोषित कर दिया। किसानों से वसूले गए धन का भी 25 प्रतिशत वापस कराया गया। इस आंदोलन के जरिए महात्मा गांधी ने लोगों के विरोध को सत्याग्रह के माध्यम से लागू करने का पहला प्रयास किया जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आम जनता के अहिंसक प्रतिरोध पर आधारित था।

महात्मा गांधी के लिए चंपारण आंदोलन का मुख्य केंद्र चंपारण के किसानों की दुर्दशा को दूर करने का था। महात्मा गांधी ने सक्षम वकीलों के साथ चंपारण जिले के लोगों को संगठित किया। उन्होंने जनता को शिक्षित करने में सक्रिय भूमिका निभाई और साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर आजीविका के विभिन्न तरीकों को अपनाकर आर्थिक रूप से मजबूत बनना सिखाया। यह आंदोलन न केवल ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नील की खेती के फरमान को रद्द करने में सफल साबित हुआ बल्कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह वाले असरदार तरीके के साथ भारत के पहले ऐतिहासिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन के तौर पर भी सफल साबित हुआ।

वर्तमान में भारतीय किसानों की दुर्दशा ऐसी है कि किसी को फसल नष्ट करना पड़ता है तो कोई तंग आकर खुद को ही नष्ट कर लेता । बिचौलिए भारत की तमाम व्यवस्था में घुन की तरह रचते-बसते जा रहे हैं। कहीं किसानों से उनके अनाज आधे दामों पर खरीद लिए जाते हैं तो कहीं उनकी उपजाऊ भूमि को कंपनियों या शहरों की शक्ल में ढाल दिया जाता।

किसान चाहे या ना चाहे किसी तरह मजबूर कर उनसे उनकी आत्मा, उनकी जमीन को कम दामों में खरीद सारे शहर गाँवों में घुस आए हैं। एक समय था जब गाँधी जी ने इनपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठा इन्हें इंसाफ दिलवाया। आज हमारे देश की राजनीति का मुद्दा है ‘किसान’। भारतीय किसान बस पार्टियों के चुनाव जीतने का एक्का जान पड़ रहा। क्या आज कोई गाँधी है जो किसानों को उनके इस दुर्दशापूर्ण हालात से मुक्ति दिला पाए ? शायद बस वो एक गाँधी थे।

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

व्यंग्यचित्रों में देखेगी महात्मा गांधी के विचारों की प्रासंगिकता

लोग बड़े हर्षोल्लास के साथ महात्मा गांधी की 153वीं जयंती मनाई जाएगी। क्या? आपका तात्पर्य उस गांधी से है जिनकी जयंती पर हमें छुट्टी मिलती है और जिन्होंने हमें सत्य, नैतिकता और मूल्यों के बारे में शिक्षा दी? पर उन्होंने किया क्या ? प्रिय देशवासियो ! भारत की नई पीढ़ी महात्मा गांधी के बारे में किस तरह सोचती है, जिन्हें हम आदर से राष्ट्रपिता कहते हैं। रघुपति राघव राजा-राम, पतित पावन सीता-राम इन पंक्तियों के कानो तक पहुँचते ही गांधी के विचारों व देश की आजादी के लिए किए गए उनके प्रयासों की रूपरेखा आँखों के आगे घूमने लगती है। गांधी के  विचारों को कार्टूनों द्वारा देखने का प्रयास किया जा रहा है। जहां आप गांधी के 153वीं जयंती मनाने के साथ ही उनके विचारों की प्रासंगिकता व्यंग्यचित्र के माध्यम से देख पाएंगे, वर्तमान परिस्थितियों में नए कार्टूनिस्टों व गांधीवाद पर उनके नजरिए को भी समझ पाएंगे। बता दें कि गांधी के विचारों कि प्रासंगिकता व्यंग्यचित्रों में दिखने को मिलती है। गौरतलब है कि गांधी पूरे देश में सभी नगर निकायों, विभागों, संग्रहालयों सहित विभिन्न अकादमियों द्वारा गांधी कि 153वीं जयंती मनाने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। व्यंग्य-चित्रकार रंगा ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को व्यंग्यचित्र के माध्यम से एक सूत्र में दिखाया है, सत्य, अहिंसा, देश-प्रेम, कर्तव्य एवं ईमानदारी को लेकर उन्होंने जो रेखाचित्र बनाए वे सर्वप्रिय हुए। गांधी की जीवन-शैली को जितने संक्षिप्त एवं सादगी के साथ रंगा ने प्रस्तुत कर दिया, आज विश्व में ऐसा कहीं और कोई उदाहरण नहीं मिलता। रंगा में एकल रेखाओं से किसी हस्ती के व्यक्तित्व को रेखांकित करने की कला जापानी शैली से मिलती-जुलती है, जिसे रंगा ने स्वयं स्वीकार किया था। रंगा अपने कार्टूनों में रंगों का प्रयोग कभी नहीं किया। गांधी-कार्टून की एक विशिष्टता यह भी रही कि सारी-की-सारी रेखाकृतियाँ गांधी को मुख्य पृष्ठभूमि को दर्शाती हैं, जो इस बात की तरफ संकेत करती हैं। जिस भाँति गांधी आपनी मान्यता के स्वराज्य के साथ चरखे का अमिट संबंध मानते थे, ठीक उसी भाँति भारतीय व्यंग्य चित्रकार ने गांधी और चरखे को एक-दूसरे का पर्याय हैं, उनके विचार आज अभी प्रासंगिक हैं और हमेशा प्रासंगिक रहेंगे।  



रविवार, 22 मई 2022

Online Classes: Challenges faced by Rural Student



All educational institutions including schools and colleges could complete their academic sessions, before they were closed on March 24 due to the Corona crisis In India. During this period of lockdown, an attempt was made to complete the session through online teaching. Classes were going on in many
educational institutions and exams were pending. Controversial web platforms like Zoom were used to make middle and secondary classes online. Somewhere classes were held through Google and somewhere through Skype. Somewhere online material was created on YouTube, sometimes videos of lectures and classes were prepared and put online and sent to groups of students through WhatsApp. But most institutes are not ready for the online exam.

Online classes in rural areas student network problem

Amidst the compulsion and attraction of online studies, it is also important to know whether the country is really ready for it on the basis of numbers. According to a study, only 12 and a half percent of the families with students studying at the university have internet access in their homes. Abhirup Mukhopadhyay, Professor of Economics at the Indian Statistical Commission, in an article based on data from the National Sample Survey Organization, has said that 85 percent of urban students studying in universities have internet access, but only 41 percent of them have a home. But the same among children from rural households, only 28 percent of them have internet access at home. Such low access is a matter of great concern as 55 percent of the children studying in universities are from rural families. In such a situation, online education being given to such children through the Internet will deprive children of rural India to a large extent. Children from rural families face many challenges with online classes.
 


 

 
    “Coronavirus has created a disruptive situation in India as well as in many other countries”. Rural areas faced a lot of trouble in online classes, through interviews it was found that everyone had only one mobile phone in their house. So they have a lot of problems because they had to go to work during the class itself. Now the situation used to be that the class of the children should think about going to their work, in this way both the work is very important. If seen, the rural family has a dual responsibility. If they do not go to their work, then it will be challenging to run the household expenses. And getting information from people that there are many such villages. Where there are a lot of network problems. In this way, children from rural or remote areas were facing problems with online classes. Many such villages were also seen which did not have Android mobiles.
They only have simple phones. They should think about their children's future, and how to give education to them, then some members of the village decided that the people who are educated here, they will give education to the children. So that there will be no interruption in the education of the children so that they will be able to continue their studies continuously. They thought of giving education through the offline mode for the education of their children and the people of the village did not let their children go away from education by planning in this way. “

Online Classes: Challenges faced by Rural Students

 

As the country takes to online classes, the current pandemic is impacting rural areas more than those who live in cities”. Due to the corona crisis, the stagnant world is breaking the silence. The world is slowly moving. The haunted cosmic world we've been living in since January is going to be 'busy' day by day. The Corona Crisis is going to lift the restrictions on our daily movement, school-office closures, travel, and public gatherings bans. The Corona period is a situation that is unprecedented in the history of civilization. Needless to say, a disease called Covid-19 caused that situation. Moreover, a thought or idea takes omnipresent form and eventually transforms into an ideology.

शनिवार, 20 मार्च 2021

आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों में आम-आदमी की झलक

आर. के. लक्ष्मण में बचपन से चित्रांकन करने का जुनून था। घूमने-फिरने की उन्हें पूरी आजादी थी। वे बचपन में आसमान  में बादलों को देखा करते थे, तो उनमें, उन्हें बड़ी-बड़ी आकृतियों ने मुझ उनसे कहा तुम दुनिया में जाओगे तो अपनी कलम और तूलिका से ऐसे चुभते हुये कार्टून बनाओगे, जिनमें लोगों को अपनी विकृतियों के दर्शन हो सकें, जिन्हें देखकर लोग तिलमिला उठें।’ आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों में दिखने वाले आम आदमी के प्रति लोग जिज्ञासु होंगे। जब देश 1947 में विभाजन हुआ था तो उसी साल लक्ष्मण ने फ्री प्रेस जर्नल में दाखिला पाया। इस देश में आम-आदमी के सामने बड़ी-बड़ी समस्याएं थीं। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी थी। लेकिन आम आदमी के पास कोई आवाज नहीं थी। दरअसल उस वक्त लक्ष्मण को लगा आम-आदमी को कोई आवाज मिलनी चाहिए। लक्ष्मण जो कार्टून बनाते थे उसमें लोगों की भीड़ होती थी। दरअसल अखबार में काम करने वाले आदमी के लिए वक्त की पाबंदी का होना जरूरी है। लक्ष्मण कहते हैं, धीरे-धीरे मेरे कार्टूनों में आम आदमियों के आकृतियों की तादाद घटने लगी-बीस से पंद्रह, पंद्रह से दस, दस से पांच और फिर उनमें एक आदमी रह गया, जो सबका प्रतीक बन गया। वह दिन था 24 दिसंबर 1951 को आम आदमी का जन्म हुआ। प्रस्तुत शोध आलेख में आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों पर अध्ययन किया गया है और आम आदमी को समझने की कोशिश की गयी है। इस आलेख में गुणात्मक शोध प्रविधि का उपयोग करते हुये अंतर्वस्तु विश्लेषण, साक्षात्कार और अवलोकन उपयोग किया है।    

शुक्रवार, 1 मई 2020

उड़िया पत्रकारिता का इतिहास


भारत के कई अन्य प्रांतों की तरह, उड़ीसा में पत्रकारिता की उत्पत्ति पहले मिशनरी गतिविधियों के बाद सुधारवादी और राष्ट्रीय आंदोलन में हुई। कटक में मिशन प्रेस को 1837 में नए नियम के अनुसार छापने के लिए स्थापित किया गया था, पहली उड़िया पत्रिका ज्ञानरुना (1849) और प्रबोध चंद्रिका (1856) को निकाला।
            सन् 1866 में गौरी शंकर राय द्वारा उड़िया का पहला साप्ताहिक अखबार उत्कल दीपिका था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्कल दीपिका ने राष्ट्रवाद के उदय को जन्म दिया। इसने उड़ीसा के सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 19 वीं शताब्दी के अंत में साढ़े तीन दशकों में उड़िया में कई समाचार पत्र प्रकाशित हुए, जिनमें प्रमुख थे।  कटक के उत्कल दीपिका, उत्कल पत्र और उत्कल हितैसिनी; बालासोर से उत्कल दर्पण और सांबदा वाहिका, देवगढ़ से संबलपुर हितासिनी, आदि।  20वीं सदी के शुरुआती दौर में बंगाल में स्वदेशी आंदोलन को गति मिली थी और इसका उड़ीसा के राजनीतिक और सामाजिक जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस अवधि को उड़ीसा के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारिता के प्रसार से गंजम और कटक से अधिक पत्रों को प्रकाशन के लिए भी चिह्नित किया गया था।
            उड़िया का पहला डेली समाचार पत्र दैनिक आशा 1928 में बर्हिमपुर से शशिभूषण रथ द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह उड़िया पत्रकारिता के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इसके कारण लोगों को एकजुट करने में प्रेस की शक्ति का प्रदर्शन किया। इस मामले में पहले एक प्रशासन के तहत बाहर के उड़िया क्षेत्रों में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एकीकरण किया गया। पंडित गोपबंधु दास ने 1919 में एक साप्ताहिक के रूप में देश के स्वतंत्रता संग्राम के कारणों का समर्थन करने के लिए समाज की स्थापना की। इस पत्र को 1930 में एक दैनिक बनाया गया था। समाज ने उड़ीसा में स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तो प्रजातंत्र जैसे कागज़ात किए।
            स्वतंत्रता के बाद उड़ीसा मीडिया में समाचार पत्रों और प्रसार दोनों की संख्या में विस्तार देखा। इसने एक व्यवहार परिवर्तन किया। एक मिशन होने से- यह धीरे-धीरे एक पेशे के रूप में बदलने लगा। यह राजनीति में प्रवेश करने के लिए कई लोगों के लिए एक कदम-पत्थर भी बन गया। राजनीति और साहित्य का उड़िया पत्रकारिता से बहुत करीबी रिश्ता रहा है। एक अलग, विशिष्ट पेशे के साथ विशिष्ट कौशल के साथ पत्रकारिता स्वतंत्रता के बाद बहुत धीरे-धीरे जमीन हासिल करने लगी। इसने 80 के दशक के बाद ही गति पकड़ी।
1980 दशक में उड़िया मीडिया के माध्यम से बदल गया था। जैसा कि रॉबिन जेफरी ने लिखा था, "1980 के दशक तक, उड़िया अखबार एक खास श्रेणी में आ गए थे। उसके प्रभाव को प्रदर्शित करने और प्रभावित करने के लिए प्रभाव के लोगों द्वारा बाहर रखा गया था।" अन्य राज्यों के विपरीत, उड़ीसा में राजनेताओं द्वारा प्रतिबंधित एक प्रेस था, न कि व्यवसायी।  कुछ समाचार पत्र घाटे में चल रहे थे क्योंकि उनके प्रोपराइटरों ने 1930 के दशक से उड़ीसा की राजनीति पर हावी होने वाले छोटे अभिजात वर्ग के भीतर प्रतिष्ठा और उत्तोलन को महत्व दिया था। परिसंचरण, प्रौद्योगिकी, विज्ञापन और लाभ मालिकों के स्थिति, प्रभाव और 'शिक्षा' प्रमुख विचार नहीं किए थे। लेकिन 1980 दशक में, यह बदलना शुरू हुआ। 1981 से 1991 के बीच, दैनिक परिचलन चौगुना हो गया और उड़िया अखबार के पाठकों का अनुपात लगभग 1,000 प्रति 1,000 से 22 हो गया। 1992 तक, उड़िया समाचार पत्रों का प्रचलन 12 प्रमुख भाषाओं में तेलुगु, कन्नड़ और पंजाबी से आगे था।
            सौम्य रंजन पट्टनायक द्वारा शुरू किए गए दैनिक सांबद ने इस बदलाव को गति दी। वास्तव में कई विद्वानों का मानना है कि उड़िया अखबार उद्योग सांबद के साथ उम्र का था। उड़ीसा मीडिया उद्योग में कई फर्स्ट पेश करने का श्रेय सांबड़ से जुड़ जाता है जिसमें फोटो टाइप सेटिंग और ऑफसेट प्रिंटिंग की शुरुआत शामिल है। यह उड़ीसा में तकनीकी के साथ-साथ सामग्री और लेआउट बिंदु से अखबार उद्योग में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। नब्बे के दशक में उड़िया दैनिक  प्रकाशन को और अधिक स्थापित लोगों को एकत्रीकरण के साथ मीडिया दृश्य में अधिक विस्तार देखा गया। कई प्रमुख उड़िया राज्य के दैनिक समाचार पत्रों ने अधिक केंद्रों से प्रकाशित करना शुरू कर दिया, एक प्रवृत्ति 1990 में संभम ने अपने पहले संस्करण के साथ बेरहामपुर से शुरू की। लगभग सभी प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों ने नियमित रूप से रंग में छपाई शुरू की। उन सभी ने कई पूरक प्रकाशित करना शुरू किया और बाहर खींच लिया। पाठकों के लिए प्रतिस्पर्धा गर्म होने लगी, मार्केटिंग शैली और रणनीति पर अखबारों की नज़र और सामग्री पर निश्चित प्रभावशाली दिखाई देने लगा।
उड़िया समाचार पत्रों की स्थिति :-
            समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई थी। 1964 के अंत में उड़िया भाषा (चार दैनिक, नौ सप्ताह, 38 महीने और 19 अन्य अवधि) में 70 पत्र प्रकाशित हुए थे। 2010 तक उड़ीसा के I & PR विभाग द्वारा स्वीकृत 52 दैनिकों के रूप में कई थे। रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स ऑफ इंडिया (आरएनआई) के आंकड़ों के मुताबिक 2007-08 में उड़िया में 1032 प्रकाशन थे, जिनमें 107 दैनिक और 247 सप्ताह थे।
            उड़िया अखबारों और पत्रिकाओं को कई स्थानों से प्रकाशित किया जाता है, यहां तक कि छोटे शहरों उड़ीसा और राज्य के बाहर कई शहरों से, जहां कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, सूरत, विजयनगर जैसे बड़े आकार के उड़िया पढ़ने की आबादी है। मुख्यधारा के अखबारों में राज्य के कई स्थानों से और राज्य के बाहर से भी कई और बहु-स्थानीय संस्करण हैं, जहाँ बड़े पैमाने पर उड़िया आबादी है, और पर्याप्त विज्ञापन राजस्व की संभावना है। मुख्यधारा के अखबारों के अलावा, उड़ीसा में एक बड़े पैमाने पर वित्तीय और नैतिक रूप से स्वस्थ ग्रामीण प्रेस जरूरी नहीं है। उड़ीसा में ग्रामीण प्रेस बड़े पैमाने पर शहरी, मुख्यधारा के मीडिया- सामग्री और प्रस्तुति के मामले में नकल कर रहा है। इसकी सामग्री में ग्रामीण आबादी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, जो कि अधिकांश ग्रामीण प्रेस शहरी उनके मजबूत बिंदु हो सकते थे।



History of odiya journalism

History of odiya journalism
As a media historian says: “If Gouri Shankar Ray was credited to have printed Odisha’s first newspaper Utkal Dipika in 1866, it was only in early 20th century that journalism got wider acceptance in Odisha following the publication of Asha”.
Early history of Dainik Asha 
 In ancient times the region of Odisha was the center of the Kalinga kingdom, although it was temporarily conquered (c.250 B.C.) by Asoka and held for almost a century by the Mauryas. With the gradual decline of Kalinga, several Hindu dynasties arose and built temples at Bhubaneswar, Puri, and Konarak. After long resistance to the Muslims, the region was overcome (1568) by Afghan invaders and passed to the Mughal empire. After the fall of the Mughals, Odisha was divided between the Nawabs of Bengal and the Marathas. In 1803 it was conquered by the British1.  
The Odia-speaking areas were then divided and tagged to the neighboring provinces of Bengal, Central Provinces and Madras. The Madras Presidency consisted of a large conglomeration of linguistic groups including Odias (of Ganjam) and the Telegus. The Odias were intrigued by the administrative dismemberment of the Odia-speaking territories. Gradually a movement to amalgamate the dismembered portions and to form a separate state on linguistic basis started.
 The Utkal Union Conference (UUC, popularly known as Utkal Sammilani) was set up in December 1903 under the leadership of Madhusudhan Das to bring unity among the entire Odia population distributed over different provinces and safeguard the interests of the Odia people living outside Odisha. The first session of the conference took place in Cuttack in 1903. 
In 1911, the Bihar- Odisha Province was carved out of the Bengal Presidency without the amalgamation of the Ganjam. There were big demonstrations in the district demanding inclusion of Odia-speaking tracts of Madras with Odisha.
In early 20th century, the quest for regional and linguistic identity was the primary agenda of the indigenous press in Odisha. Though small in number the periodicals were vociferous in demanding a separate province. Sri Nilamani Vidyaratna, a prominent Oriya nationalist and journalist advised Sashibhusan Rath of Ganjam to publish an Oriya Weekly2. 

Asha made its maiden appearance on 13 April 1913. It was named after Shashi Bhusan Rath’s daughter Ashalata.  It became the most important weekly after Utkal Dipika. Published from Ganjam it acted as a successful communication link between southern Odisha and the rest part of the province. Asha emerged as a powerful Odia nationalist paper and supported the UUC activities. It acted as a mouthpiece of Ganjam in particular, and of the Odias in general. The newspaper was extremely blunt in criticizing the British government. In one of its editorials on 5 January 1914, it wrote, ‘In every British District, there is always a non-indigenous element of about ten per cent, but that has never influenced the consideration of the language question by government which as a matter of fact recognized the prevailing language of each District as the official vernacular form the very commencement of the British Administration, but the hapless Odias of Ganjam have been treated as poor Cinderella in the Madras Presidency’. 
Asha received articles from the Satyavadi stalwarts like Pandit Gopabandhu Das, Pandit Nilakantha Das, Pandit  Godavarish Mishra, the great freedom fighters and scholars, who later became editors of powerful newspapers. However, later on, the paper failed to subscribe to the views of Satyavadi group when the school set up by Gopabandhu Das was converted into a national school. Utkala Dipika, Samaj and Asha were the three important newspapers championing the cause of Odia nationalism. 
After 1920, Samaj become the voice of the Congress organization in Orissa and criticized the so-called ‘moderates’, who would still maintain a soft, conciliatory policy towards the British government. ‘Asha’ was pro-moderate for a long time and later on expressed a desire for a rapport between the two groups. Utkala Dipika, the oldest the group, maintained an even tone with a pragmatic approach in the context of Odia nationalism. 
Pandit Gopabandhu, the founder of Orissa’s influential Oriya newspaper, the Samaj published his first monthly magazine “Satyavadi” from Asha Press of Berhampur. The other prominent writers of ‘Asha’ were late Gopal Chandra Praharaj (author of Oriya Encyclopaedia-Bhasakosh), the great social reformer Ananta Mishra, Appanna Panigrahi of Paralakhemidi, Gadadhar Vidya Bhusan and Sadasiva Vidya Bhusan of South Ganjam, the great Oriya novelist and writer Fakir Mohan Senapati, the poet and writer Ramchandra Acharjya and many others.

Asha became Dainik Asha 
In 1928 Shashi Bhusan Rath converted Asha into a daily newspaper. It was then known as ‘Dainik (Daily)Asha’. It was the first Oriya daily newspaper of Orissa.  Some researchers believe that ‘Gandhi 

Samachar’ edited by Niranjan Pattanik which was published in 1927 was the first Odia daily. But content wise it was Gandhi-centric. Dainik Asha, on the other hand was a complete newspaper. Publication of Dainik Asha was a turning point in the history of Odia journalism as it had helped the people of Odisha to launch their struggle more effectively and vigorously to secure the unification of the outlying Odia areas under one administration. It also spread the message of freedom movement. With the publication of Dainik Asha, many public-spirited young men got the opportunity to receive practical training in journalism in general and in publication of daily newspaper in particular. Credit must be given to Dainik Asha for commencing training in newspaper production and publication. In a way, it also started the professionalization process in journalism in Odisha. Many people, who got training in Dainik Asha as subeditors or reporters later helped production of other daily newspapers in the state. Thus Dainik Asha acted as the harbinger of Odia journalism.
Dainik Asha after independence 
After formation of separate  province, Shashi Bhusan Rath gave up the editorship of  Dainik Asha on 18th April 1936. During the time of Second World War in 1942, Dainik Asha and its sister publication the English daily ‘New Orissa’ changed hands. These two papers were  purchased by a businessman of Calcutta, Mr. M.L. Jajodia, who later settled down at Cuttack. Under a different ownership, these two papers provided effective support to war efforts of the British Government and were also recipients of Government’s aid. However, both the papers closed down in 1951 marking the end of a great chapter of the pre-independence era journalism in Orissa. 
However, Dainik Asha was revived in the seventies by a Trust set up by the noted social activist politician Brundaban Nayak. It was published again on 10 February 1982 under the editorship of Sriharsha Mishra, a veteran journalist, who was earlier associated with Prajantra for long years. After the demise of Sriharsha Mishra in 1984, Chandrasekhar Mohapatra became the editor. Mohapatra was earlier associated with Prajatantra and Matrubhumi. After his death Pramod Panda became the editor. 

Current status of Dainik Asha 
Dainik Asha at its glorious years enjoyed wider recognition throughout the state. The newspaper used to be called as journalists’ newspaper because of its creditability as an authentic source of news and views. However, it gradually lost its popularity. There were many factors for the decline: from its inability to keep pace with the changing taste and reading habit of the readers to mal-management.
By early 2013 the status of  Dainik Asha is: it is just about surviving. It is surviving because of its legacy and a handful of committed readers mostly in South Odisha. The four-page daily is still published from Berhampur. It is occasionally published in 8 pages. It is said to have a circulation of 20,000. It is mostly circulated in South Odisha, primarily in Ganjam district. The newspaper largely banks on government advertisements for its survival, though it occasionally gets private advertisements.  
The present editor, Pramad Panda has ambitious expansion plans to revive the glory. The expansion plans include multiple editions to reach out to different parts of Odisha. Dainik Asha has also plans to start its Vishakhapatna edition. It has plans to adopt latest printing technology and to make its presence in the web sphere.   


reference

गुरुवार, 19 मार्च 2020

माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947

माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947


प्रस्तावना
1947 के प्रारंभ में साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहे देश तथा कांग्रेस एवं लीग के मध्य बढ़ते गतिरोध के कारण भारतीय राष्ट्रवादी विभाजन के उस दुखद एवं ऐतिहासिक निर्णय के संबंध में सोचने को विवश हो गये, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस दौरान सबसे महत्वपूर्ण मांग बंगाल एवं पंजाब के हिन्दू एवं सिख समुदाय की ओर से उठायी गयी। इसका प्रमुख कारण यह था कि यह समुदाय समूहीकरण की अनिवार्यता के कारण इस बात से चिंतित था उसे कहीं पाकिस्तान में सम्मिलित न होना पड़े। बंगाल में हिन्दू मह्रासभा ने पं. बंगाल के रूप में एक पृथक हिन्दू राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की।
10 मार्च, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि वर्तमान समस्या के समाधान का सबसे सर्वोत्तम उपाय यह है कि कैबिनेट मिशन, पंजाब एवं बंगाल का विभाजन कर दें।
अप्रैल 1947 में भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष जे.बी. कृपलानी ने वायसराय को लिखा कि.“युद्ध से बेहतर यह है कि हम उनकी पाकिस्तान की मांग को मान लें। किन्तु यह तभी संभव होगा जब आप पंजाब और नंगल का ईमानदारीपूर्वक विभाजन करें।”
माउंटबैटन वायसराय के रूप में: लार्ड माउंटबैटन अपने पूर्ववर्ती वायसरायों की तुलना में निर्णय लेने में ज्यादा त्वरित एवं निर्णायक सिद्ध हुये क्योंकि उन्हें निर्णय लेने के ज्यादा एवं अनौपचारिक अधिकार प्रदान किये गये थे। साथ ही उन्हें ब्रिटिश सरकार के इस दृढ़ निर्णय से भी काफी सहायता मिली कि जितनी जल्दी हो सके भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित कर दी जाये। उनका प्रमुख कार्य यह था कि अक्टूबर 1947 से पहले वे इस बात का पता लगायें कि भारत में एकता या विभाजन दोनों में से क्या होना है और इसके पश्चात उनका उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार को इस बात से अवगत कराना है कि भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण किस प्रकार किया जायेगा तथा उसका स्वरूप क्या होगा? मांउटबैटन के आने से पूर्व ही भारतीय परिस्थितियां निर्णायक मोड़ लेने लगी थीं, इससे भी माउंटबैटन को परिस्थितियों को समझने तथा निर्णय लेने में मदद मिली।
कैबिनेट मिशन निष्फल प्रयास के रूप में सामने आया तथा जिन्ना इस बात पर दृढ़तापूर्वक अड़े हुये थे कि वे पाकिस्तान से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।
माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947
लार्ड वैवेल के स्थान पर लार्ड माउंटबैटन के वायसराय बन कर आने के पूर्व ही भारत में विभाजन के साथ स्वतंत्रता का फार्मूला भारतीय नेताओं द्वारा लगभग स्वीकार के लिया गया था। 3 जून को माउंटबैटन ने भारत के विभाजन के साथ सत्ता हस्तांतरण की एक योजना प्रस्तुत की। इसे माउंटबैटन योजना के साथ ही 3 जून योजना के नाम से भी जाना जाता है।
मुख्य विन्दुः माउंटबैटन योजना के मुख्य बिन्दु निम्नानुसार थे–
पंजाब और बंगाल में हिन्दू तथा मुसलमान बहुसंख्यक जिलों के प्रांतीय विधानसभा के सदस्यों की अलग बैठक बुलाई जाये और उसमें कोई भी पक्ष यदि प्रांत का विभाजन चाहेगा तो विभाजन कर दिया जायेगा।विभाजन होने की दशा में दो डोमनियनों तथा दो संविधान सभाओं का निर्माण किया जायेगा।सिंध इस संबंध में अपना निर्णय स्वयं लेगा।उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत तथा असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह द्वारा यह पता लगाया जायेगा कि वे भारत के किस भाग के साथ रहना चाहते हैं।योजना में कांग्रेस की भारत की एकता की मांग को अधिक से अधिक पूरा करने की कोशिश की गयी। जैसे-
1. भारतीय रजवाड़ों को स्वतंत्र रहने का विकल्प नहीं दिया जा सकता उन्हें या तो भारत में या पाकिस्तान में सम्मिलित होना होगा।
2.बंगाल को स्वतंत्रता देने से मना कर दिया गया।
3. हैदराबाद की पाकिस्तान में सम्मिलित होने की मांग को अस्वीकार कर दी गयी। (इस मांग के संबंध में माउंटबैटन ने कांग्रेस का पूर्ण समर्थन किया)।

15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान को डोमिनियन स्टेट्स के आधार पर सत्ता का हस्तांतरण हो जायेगा।यदि विभाजन में गतिरोध उत्पन्न हुआ तो एक सीमा आयोग का गठन किया जायेगा।
माउंटबैटन योजना को कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया तथा भारत का भारत एवं पाकिस्तान दो डोमिनियनों में विभाजन कर दिया गया। इस योजना से जहां मुस्लिम लीग की बहुप्रतीक्षित पाकिस्तान के निर्माण की मांग पूरी हो गयी, वहीं योजना में कांग्रेस की इस मांग का भी पूरा ध्यान रखा गया कि यथासंभव पाकिस्तान का भौगोलिक क्षेत्र छोटा से छोटा हो।
भारत ने डोमिनयन का दर्जा क्यों स्वीकार कियाः
लाहौर अधिवेशन (1929) की भावना के विरुद्ध कांग्रेस ने डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा स्वीकार किया क्योंकि-
इससे शांतिपूर्ण एवं त्वरित सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया सुनिश्चित हो गयी।देश की तत्कालीन विस्फोटक परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिये आवश्यक था कि कांग्रेस जल्द से जल्द शासन की शक्तियां प्राप्त करे।देश में प्रशासनिक एवं सैन्य ढांचे की निरंतरता को बनाये रखने के लिये भी यह अनिवार्य था।भारत द्वारा डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा स्वीकार किये जाने से ब्रिटेन को उसे राष्ट्रमंडल में शामिल करने का अवसर मिल गया। इससे ब्रिटेन की यह चिर-प्रतीक्षित इच्छा पूरी हो गयी। यद्यपि भले ही यह अस्थायी था, परंतु ब्रिटेन को विश्वास था कि भारत के राष्ट्रमंडल में आ जाने से उसे आर्थिक सुदृढ़ता तथा रक्षात्मक शक्ति मिलेगी तथा भारत में उसके निवेश के नये द्वार खुलेंगे।
ब्रिटेन द्वारा सत्ता हस्तांतरण की तिथि (15 अगस्त 1947) समय से पूर्व ही तय कर लिये जाने का कारण
ब्रिटेन, डोमिनियन स्टेट्स के मुद्दे पर कांग्रेस की स्वीकृति चाहता था। इसके साथ ही वह उस समय हो रहे भीषण सांप्रदायिक दंगों की जिम्मेदारी से भी बचना चाहता था।
योजना यह थी कि जैसे ही डोमिनियन स्टेट्स के लिये कांग्रेस की स्वीकृति मिले, योजना को तुरंत, बिना किसी विलंब के क्रियान्वित कर दिया जाये। इस योजना के अनुसार, सीमांत प्रांत में जनमत संग्रह द्वारा यह तय होना था कि वह भारत में शामिल होगा या पाकिस्तान में इसी प्रकार असम के मुस्लिम बहुसंख्यक सिल्हट जिले में भी जनमत संग्रह द्वारा यह निश्चित होना था कि वह भारत में सम्मिलित होगा या पूर्वी बंगाल में।
बंगाल और पंजाब की विधानसभाओं को दो भागों में, एक में मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश के प्रतिनिधि तथा दूसरे में शेष अन्य प्रतिनिधियों को यह निश्चित करना था कि प्रांतों का विभाजन हो या नहीं। जैसी कि उम्मीद थी दोनों प्रांतों के हिंदू बहुसंख्यक प्रदेशों के प्रतिनिधियों ने यह निश्चय किया कि प्रांतों का विभाजन हो। पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल ने यह तय किया कि वे पाकिस्तान में सम्भिलित होंगे, जबकि पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब ने यह तय किया कि वे भारत में सम्मिलित हॉगे । सिल्हट और सीमांत प्रांत का जनमत संग्रह पाकिस्तान के पक्ष में गया। ब्लूचिस्तान एवं सिंध में जनमत ने भारी बहुमत से पाकिस्तान में सम्मिलित होने की इच्छा जतायी ।
स्रोत – आधुनिक भारत का इतिहास द्वारा राजीव अहीर…
1.निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए – भारत छोड़ो आंदोलन प्रारम्भ करने के पूर्व दिन महात्मा गांधी ने –
1 सरकारी कर्मचारियों को त्यागपत्र देने को कहा .
2 सैनिकों को अपने पद छोड़ने को कहा .
3 राजसी रियासतों के राजाओं को अपनी जनता की प्रभुसत्ता स्वीकार करने को कहा .
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा /से सही है /हैं ?

(a) 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1 ,2 और 3

2.’करो या मारो’ का नारा निम्नलिखित आंदोलन में से किसके साथ सम्बंधित है ?
(a) स्वदेशी आंदोलन
(b) असहयोग आंदोलन
(c) सविनय अवज्ञा आंदोलन
(d) भारत छोड़ो आंदोलन

3.भारत छोड़ो आंदोलन किसकी प्रतिक्रिया में प्रारम्भ किआ गया ?
(a) कैबिनेट मिशन योजना
(b) क्रिप्स प्रस्ताव
(c) साइमन कमीशन रिपोर्ट
(d)वैवेल योजना

4. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन सी एक टिप्पणी सत्य नहीं है ?
(a) यह आंदोलन अहिंसक था .
(b)उसका नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था
(c) यह आंदोलन स्वतः प्रवर्तित था .
(d) इसने सामान्य श्रमिक वर्ग को आकर्षित नही किया था .

5.भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सन्दर्भ में उषा मेहता की ख्याति —
(a) भारत छोड़ो आंदोलन की बेल में गुप्त कांग्रेस रेडियो चलने हेतु है .
(b) द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में सहभागिता हेतु है .
(c) आज़ाद हिन्द फौज की एक टुकड़ी का नेतृत्व करने हेतु है .
(d) पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सर्कार के गठन में सहायक भूमिका निभाने हेतु है .

6.भारत छोड़े आंदोलन के उपरांत सी. राजगोपालाचारी ने “दी वे आउट ” नमक पैम्फलेट जारी किया . निम्नलिखित में से कौन सा एक प्रस्ताव इस पैम्फलेट में था ?
(a) ब्रिटिश भारत तथा भारतीय राज्यों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक “युद्ध सलाहकार परिषद् ” की स्थापना .
(b) केंद्रीय कार्यकारी परिषद् का इस प्रकार पुनर्गठन कि गवर्नर जनरल तथा कमांडर – इन – चीफ के अतिरिक्त अन्य सभी सदस्य भारतीय नेता हों.
(c) केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों के 1945 के अंत में नए चुनाव कराए जाए तथा संविधान का निर्माण करने वाले निकाय को यथासंभव शीघ्र आयोजित किया जाए .
(d) संवैधानिक गतिरोध का हल.

7.1943 में आज़ाद हिन्द फौज अस्तित्व में आई –
(a) जापान में
(b) तत्कालीन बर्मा में
(c) सिंगापुर में
(d) तत्कालीन मलया में

8.भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान , निम्नलिखित में से किसने ‘द फ्री इंडियन लीजन ‘ नमक सेना बनाई ?
(a) लाल हरदयाल
(b) रास बिहारी बोस
(c) सुभाष चंद्र बोस
(d) वी डी सावरकर

9. इसका प्रस्ताव मई में आया . इसमें अभी भारत को विभाजन मुक्त रखने की आकांक्षा थी जिसका ब्रिटिश प्रान्तों से मिलकर बने एक संघीय राज्य का स्वरुप होना था – उपर्युक्त उद्धरण का सम्बन्ध है
(a) साइमन कमीशन के
(b) गांधी – इर्विन पैक्ट
(c) क्रिप्श मिशन
(d) कैबिनेट मिशन

10.कैबिनेट मिशन योजना के विषय में निम्नलिखित में से कौन सा सही नहीं है ?
(a) प्रांतीय समूहीकरण
(b) भारतीय सदस्यों वाला अंतरिम मंत्रिमंडल
(c) पाकिस्तान की स्वीकृति
(d)संविधान निर्माण का अधिकार

11.कैबिनेट मिशन के सन्दर्भ में निम्नलिखित में से कौन सा / से कथन सही है /हैं ?
1 इसने एक संघीय सरकार की सिफारिश की
2 इसने भारतीय न्यायालयों की शक्तियों का विस्तार किया .
3 इसने ICS में और अधिक भारतीयों के लिए उपबंध किया .
निचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए —

(a) केवल 1
(b) 1 और 3
(c) 1 और 3
(d) कोई नहीं

12.निम्नलिखित में से किसने वायसराय की एक्जीक्यूटिव कॉउन्सिल के पुनर्गठन का सुझाव दिया , जिसमे वॉर मेंबर सहित सभी विभाग भारतीय नेताओं द्वारा धारण किए जाने थे .
(a) साइमन कमीशन 1927
(b) शिमला सम्मलेन 1945
(c) क्रिप्स प्रस्ताव 1940
(d) कैबिनेट मिशन 1946

13.कांग्रेस के निम्नलिखित नेताओं में से कौन एक कैबिनेट मिशन योजना के पक्ष में पूरी तरह से था ?
(a) महात्मा गांधी
(b) जवाहरलाल नेहरू
(c) सरदार पटेल
(d) मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

14.निम्नलिखित कथनों में से कौन सा एक सही है ?
(a) वर्ष 1946 में प्रांतीय सभाओं द्वारा भारत की संविधान सभा चुनी गई .
(b) जवाहरलाल नेहरू . जिन्ना और सरदार पटेल भारत की संविधान सभा के सदस्य थे .
(c)भारत की संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन जनवरी 1947 में हुआ .
(d) भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को अंगीकृत किया गया .

15.भारत के विभाजन का बाल्कन प्लान उपज थी ?
(a) चर्चिल के मस्तिष्क का
(b) जिन्ना के मस्तिष्क का
(c) लार्ड माउन्टबेटन के मस्तिष्क का
(d) वी पी मेनन के मस्तिष्क का .

संचार शोध

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